सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

कालिंग बेल


पहली बार
जब लगी होगी
कालिंग बेल 
थोड़ी दूर हुई होगी
आत्मीयता और सहजता
जीवन में
प्रवेश हुआ होगा
यांत्रिकता का

ठिठक गए होंगे
कई बेलौस बेफिक्र कदम
खामोश हो गई होगी
कई अपनापन भरी पुकार
देहरी से ही
इनके बदले आई होगी
थोड़ी औपचारिकता
रिश्तों में

कालिंग बेल की
घनघनाहट के बीच
चुप से हुए
सांकल
उभरा  कुछ अजनबीपन
आपस में

आज जब
जीवन  का  अहम् हिस्सा बन गयी  है
कालिंग बेल 
इनके बजने के साथ ही
ठीक कर लिए जाते हैं
परदे
कपडे
चादर
मेज पर पडी किताबें
सही स्थान पर रख दी जाती हैं
चीज़ें सजाकर
एक हंसी पसर जाती है
अधरों पर, छद्म ही भले
कई बार
इनके बजने से
उभर आते हैं दर्ज़नो चेहरे
उन से जुडी यादें 
उन से जुड़े मुद्दे
कुछ  देते  हुई ख़ुशी 
कुछ बेमौसम सी

संगीतमय होती  नहीं  है
कालिंग बेल 
फिर भी कई बार 
कर्णप्रिय लगती  है यह
खास तौर पर 
जब हो रहा हो किसी का 
इन्तजार 

कालिंग बेल 
वैसे तो है 
निर्जीव ही लेकिन
सच कहूँ तो
कई बार 
होते हैं भाव, संवेदना
इनमे भी 
जैसे 
किसी के फुर्सत में
तो किसी के 
जल्दी में होने के बारे में
बता  देती है 
कालिंग बेल 
क्योंकि
अख़बार वाले पाण्डेय जी 
जब लेने आते हैं 
महीने का बिल 
बजा देते हैं जल्दी जल्दी
कई बार कालिंग बेल 
समय नहीं है उनके पास भी . 

आज के बदलते दौर में
कई बार आशंकित भी
करती है कलिंग बेल
खास तौर पर 
जब भुगतान नहीं की गई हो
बैंक की  कोई किस्त
चुकाया नहीं हो
आधुनिक महाजनों का
आकर्षक सा दिखने वाला उधार
ऐसे में युद्ध के मैदान में
बजते इमरजेंसी अलार्म सी
लगती है कालिंग बेल
 
पहली बार जब मैं
आया था तुम्हारे द्वार
बजाई थी  कालिंग बेल
थरथराते हाथों से 
कहो ना
कैसा लगा था तुम्हे
क्या पहचान पाई थी
मेरे तेजी से 
धडकते  ह्रदय का  स्पंदन
 
माँ को कभी
प्रिय नहीं लगी  यह 
कालिंग बेल 
अच्छी लगती है
उसे अब भी 
सांकल की आवाज़ 
जिस से पहचान लेती है  वह
बाबूजी को/ मुझे/
छुटकी को
पूरे मोहल्ले को
डरती नहीं थी वह
सांकल की आवाज़ से 
समय-असमय कभी भी.

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

संक्रमित समय है यह

समय है यह
मोटिवेशन का
प्रेरित होने का
अपना आदर्श बनाने का

समय है यह
महाभारत में युद्ध से पूर्व
अर्जुन का कृष्ण के चरणों में झुके चित्र को
अपने बैठक कक्ष में  लगाने का
सात दिनों में सफलता, आसमान को छूने
सपनो को हकीकत बनाने जैसी प्रेरित करने वाली
पुस्तकों के साथ
तरह तरह के शब्दकोशों और
संदर्भग्रंथों के बीच
प्रेमचंद के सम्पूर्ण रचना संसार को
सजिल्द शेल्फ में सजा कर रखने का .

समय है यह
बच्चों को प्रथम डेटिंग पर जाने से पूर्व
जरुरी 'टिप्स ' देने का

एक इअर फोन के दो सिरों से
माँ और बेटी को एक साथ
साल की सबसे सफल रीमिक्स वाला
मस्त गीत सुनने का
सुनहरे परदे पर रीटेक के बाद रीटेक देकर
उत्पन्न किये गए दृश्यों और संवेदनाओं से
प्रेरित होने का
उन छद्म किरदारों को अपना आदर्श बनाने का
अपने स्कूली सर्टिफिकेट के बीच
रखने का उनके आटोग्राफ

समय है यह
पर्यावरण और
अन्य संवेदनशील मुद्दों पर
सम्मलेन और कार्यशालाओं में
तीसरी दुनिया के तीसरे दर्जे के नागरिको को
दुनिया पर बोझ साबित करने का
जबकि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में
सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं पर्यावरण (एस एच ई ) नीति के अनुपालन पर
स्टेकधारकों, नीतिनिर्धारकों और मीडिया के समक्ष
विश्वस्तरीय कार्पोरेट फिल्म के भव्य प्रदर्शन का

समय है यह
ऊंची  अट्टालिकाओं की सेवा में जुटे
उन्ही की स्याह परछाई  मे उगी झुग्गिओ को
हटाने के लिये पूरे तंत्र  के बीच
अदभुत सामंजस्य बिठाने का
और कैमरों के फ्लैश के बीच
उसी झुग्गी से एक लड़की को चुन
शहर के सबसे प्रतिष्ठित विद्यालय में 

करवाने का नामांकन

यह समय है
आँखें बंद कर
शुतुरमुर्ग हो जाने का

या फिर चील, बाज़ की तरह
विलुप्त हो जाने का

संक्रमित समय है यह.




(यह कविता कुछ दिनों पहले अपनी माटी वेब मंच पर प्रकाशित हुई थी.. लेकिन  अब लगा  कि कुछ अधूरी है कविता ... संक्रमित समय का व्यापक प्रतिनिधित्व नहीं हो पाया.. सो  कविता को पुनः लिख कर अपने ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूँ. भाई मानिक (संपादक, अपनी माटी) अन्यथा तो नहीं लेंगे! )

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

राजपथ पर गिलहरियाँ


राजपथ 
कभी इसका नाम था 
'किंग्स वे' 
जरुरत नहीं 
समझाने को इसका अर्थ 
बदल दिया है जिसने
पूरे राष्ट्र का चरित्र  

राजपथ के एक छोर पर 
है राष्ट्रपति भवन 
जहाँ निवास है 
सैकड़ों एकड़ में फैले 
दुनिया के निचले पायदान पर खड़े 
आधे गरीबों के देश के
राष्ट्रपति का  

राजपथ के दूसरे  छोर पर
उपनिवेशवाद के ख़त्म होने के बाद भी 
स्मृतिचिन्ह के रूप में खड़ा है
दृढ इंडिया गेट
परतंत्र के पराक्रम को बढाता 

राजपथ के दोनों ओर 
विस्तार है हरे घास की चादर का 
 और छायादार वृक्ष कतारबद्ध हो 
और हैं मंत्रालय के दफ्तर 
जो होने चाहिए थे 
जन और तंत्र के बीच पुल
बने हैं सत्ता के कारीडोर
जो अलग करते हैं
जन को तंत्र से

राजपथ के दोनों ओर
हजारों की  संख्या में हैं
गिलहरियाँ, 
इन प्रिय गिलहरियों को
बना लिया है अपना शिकार 
सत्ता के कारीडोर के लोगों ने
बदल दिया है इनका चरित्र
जैसे बदला है पूरे राष्ट्र का
आसानी से समृद्धि का देकर 
लोभ

मूंगफली दिखा 
बुला ली जाती हैं
गिलहरियाँ और फिर 
शुरू होती  है अटखेलियाँ 
एक गिलहरी या 
खास गिलहरी के समूह को
संरक्षित कर, तुष्ट कर 
दूसरी गिलहरी या उसके समूह को
भड़काया जाता है
लड़ाया जाता है 
और दो गिलहरियों या उनके समूहों के बीच 
देख लड़ाई खुश होते हैं बेहिसाब 
राजपथ पर सत्ता के कारीडोर के लोग 
चर्चा करते हैं 
गिलहरी के रूप रंग, आदतों के बारे में 
मोबाइल से खींचते हैं 
जीवंत तस्वीरें 
जैसे खींची जाती है 
भूखे किसान की तस्वीर 
सूखे खेत के सामने 
लगे हैं ऐसी कई तस्वीरें 
राष्ट्रपति भवन और इसके आसपास के भवनों में

अब तो गिलहरियाँ 
चालाक हो गईं हैं 
हो गये हैं इनके भी पाले
फुदकती गिलहरियों की आँखों में
पलता है लालच, विद्वेष
बस आसानी से मिलने वाले
मूंगफली के दानो के लिए
ऐसे में गिलहरियाँ
पतनशील लगती हैं

दूसरी तरफ 
एक आनंद की वस्तु बन गई हैं
राजपथ पर गिलहरियाँ 
ठीक राजपथ से 
सैकड़ो किलोमीटर दूर 
आम आदमी की तर्ज़ पर
आत्महत्या करते
दंगा करते
कदाचार करते

यहाँ पर गिलहरियाँ
शिकार हैं सत्ता के गलियारे में
पलने वाले बहेलियों के
एक दिन गुम हो जाएँगी
गिलहरियों की मासूमियत 
राजपथ पर 

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

रात के एक बजे


ऐसा भी कहीं 
होता है किसी कविता का 
शीर्षक  
'रात को एक बजे'
लेकिन हो भी सकता है
क्योंकि
जिंदगी घूमती है
उसी रफ़्तार से 
रात के इस पहर में भी
हाँ ! एक बजे 

ठेले वाले 
जो लगाते हैं 
अपनी रेहड़ी देर रात तक 
किसी मीडिया हाउस के बाहर
वहां चौदह साल से  कम का एक बच्चा 
धो रहा होता है
जूठी प्लेटें उन मीडियाकर्मियों की 
 जो अभी अभी तैयार  करके आयें है 
बाल श्रम पर एक सनसनीखेज स्टोरी 
रात के एक बजे 

पाण्डेय जी 
जो आयें थे गाजीपुर से 
आई ए एस  की तैयारिओं के लिए 
अपने वंशानुगत संस्कारों
और ढेर सारी पुस्तकों के साथ 
कहते फिरते हैं 
हो गए शिकार 
नई आरक्षण नीति के ,
वे बांटते हैं इन दिनों खबर 
हिंदी, अंग्रेजी और लोकल भाषा में 
उठ चुके हैं और साइकिल पकड़ 
चल दिए  हैं लेने सुबह का अखबार 
रात के एक बजे 

आखिरी शो के बाद 
खाली हुए मल्टीप्लेक्स से
चुने जा रहे हैं 
पॉपकार्न के खाली डिब्बे और
कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलें 
हो रही है फर्श की  सफाई 
और इन सब में लगे भिड़े 
युवा हाउसकीपिंग स्टाफ की  आँखों में 
जाग रहे होते हैं सपने 
रात के एक बजे 

वे जो 
देश के प्रतिष्ठित अभियांत्रिकी  कालेज से निकल
इन दिनों किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के  सी ई  ओ हैं 
उन्हें लेनी है सुबह की पहली फ्लाईट  
वे भी जाग  चुके हैं 
कर रहे हैं जरुरी मेल
दे रहे हैं अपने दफ्तर को  निर्देश 
निपटा रहे हैं अर्जेंट फ़ाइल 
और बाहर पोर्टिको में ऊँघता उनका ड्राइवर 
कर रहा है  इन्तजार 
रात के एक बजे 

इन सब के बीच 
मेरी नींद जो चली गई है 
तुम्हारे साथ ही 
तुम्हारे आँचल से लिपट
मैं भी जगा हूँ 
सुन रहा हूँ 
सिक्योरिटी गार्ड की चहल कदमी
रुक रुक कर आती जाती गाड़ियों का शोर 
दीवार  घडी  के चलने की टिक टिक 
और भी बहुत कुछ
जो अमूमन दिन में सुनाई नहीं देता  
रात के एक बजे 

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

तुम्हारे जन्मदिन पर


(देखता हूँ कि मैं अपनी पत्नी का जन्मदिन अक्सर भूल जाता हूं  जबकि वह याद रखती है सब कुछ... उसके लिए जन्मदिन  कुछ अलग नहीं होता.. ना रोज़मर्रा के कामों से फुर्सत  ना किसी और तरह से. उल्टा हर खास मौके पर उसकी जिम्मेदारियां बढ़ ही जाती हैं.. इस बरस उसका जन्मदिन जब भी आये मेरी शुभकामना उसके लिए)

प्रिये 
तुम्हारे जन्मदिन पर
धरती लगती है
कुछ अधिक ही अपनी सी
क्योंकि 
तुम दोनों के बीच 
लगता है
कुछ अधिक ही साम्य


धरती द्वारा 
सूर्य की परिक्रमा से 
बदलती है ऋतु 
लेकिन तुम्हारे लिए 
नहीं बदलती  है कोई ऋतु 
चाहे लाख कर लो तुम 
किसी की परिक्रमा 
अपने अक्ष में 
अपनी धुरी पर
तुम्हारी परिक्रमा रहती है जारी
तुम्हारे जन्म दिन पर
चाहता हूँ 
तुम रुको एक पल
अपने अक्ष से बाहर आओ 
थोडा सुस्ताओ 
एक पल के लिए ही सही
बदलना चाहता हूँ
ऋतु  तुम्हारे भीतर और बाहर की 
देना चाहता हूँ 
तुम्हे वसंत, हेमंत और शिशिर 

आज  चाहता हूँ 
वर्षो से जो बर्फ जमी है
मन पर 
परत दर परत 
उधेडूं ताप से, ऊष्मा से
और बहो तुम 
निर्झरनी की तरह 
पवित्र, निर्मल 
और पावन कर दो 
मेरे मन की धरा
आज तुम्हारे जन्म दिन पर
देना चाहता  हूँ तुम्हे
नदियों की चंचलता  व चपलता


तुम्हारे ह्रदय गर्भ में
आज रोप देना चाहता हूँ 
नेह का एक बीज
जो पनपे वटवृक्ष की  तरह
और उसकी शाखाएं 
तुम्हारे भीतर बस जाएँ  
सदा के लिए
चिरंतन कर देना चाहता हूँ
स्वयं को तुम्हारे भीतर
तुम्हारे जन्मदिन पर 

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

असंख्य शुभकामनाएं


(कल प्रेम दिवस था. आज सुबह सुबह मोहल्ले के कूड़ेदान में बिखरी हुई थी गुलाब की अनगिनत पंखुड़िया. वहीँ से जन्मी यह कविता  किसी अनामिका के लिए) 

एक गुलाब
लिया था मैंने
देने को 
उपहार 
नहीं मालूम था
नहीं करोगी तुम 
उसे स्वीकार 

बिखर गईं 
पखुडियाँ 
और हवाओं में 
 हैं बिखरी देखो 
तुम्हारे जन्मदिन की
असंख्य शुभकामनाएं
अनाम .

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

वेलेंटाइन डे पर एक चिट्ठी

माँ 
बहुत प्यार करता हूँ तुम्हे
फिर भी
दे ना सका कभी तुम्हे
कोई गुलाब
कोई कार्ड
जब भी कुछ देने की पहल की
सोचा पहले छुडवा दू
तुम्हारे बंधक पड़े गहने
गहने छुडवा न सका
क्योंकि हर बार
बदल गई प्राथमिकताएं
कुछ तुम्हारी मर्ज़ी से
कुछ खिलाफ

पता  नहीं कैसे तुम
बिना उपहार
बिना इज़हार
करती हो प्यार

बाबूजी
आपसे भी करता हूँ
उतना ही प्यार
जितना माँ से
और यह प्यार
तब और बढ़ गया था
जब आपने लगवाया था
पहली बार गाँव में अखबार
फिर भी
कभी आया नहीं ख्याल कि
ले लू आपके लिए कार्ड, फूल
या कुछ और
ख्याल में रहा कि
बंधक पड़े हैं जो खेत
छुडवा लूं  पहले
अन्न से भर दूं 
गिरते हुए दालान पर पड़ा
वर्षों से खाली भंडार

खेत तो छूटे नहीं
क्योंकि नहीं चाहते थे आप
मेरी प्राथमिकताएं
गंवई हो जाये
शायद मेरी बदली हुई
अर्थव्यवस्था
और उससे कहीं अधिक 
बदले हुए मनोभावों से
परिचित थे आप

सोचता हूँ अक्सर
कैसे निभाते हैं आप
प्रेम यह एकतरफा 

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

इन दिनों


इन दिनों
कुछ अजीब सा लगता रहता है
भीतर ही भीतर
यह परेशान भी
नहीं करता
ना कम हुई है भूख
ना ही रूचि
कि दिखा लू
किसी डाक्टर को

निराशा के भाव भी
नहीं हैं
ना ही है कोई प्रवृत्ति
आत्महत्या की 

अवसाद के फैशन से भी 
नहीं हूँ 
ग्रस्त 

आज ही सुबह
लग रहा था मानो कोई
घर के पीछे
सिसक रहा हो
रो रहा हो
पुकार रहा हो
और मैं भाग रहा हूँ
उस से दूर
देखा तो पाया कि
भ्रम था मेरा
हां गुलाब जरुर खिल गया था
गमले में
और तोड़ लाया मैं उसे
पत्नी को देने के लिए उपहार
'रोज़ डे' यानी गुलाब दिवस के अवसर पर

एक दिन
लगा  कि एक बच्चा आ गया है
मेरी सायकिल के नीचे
जबकि सायकिल में लगे थे
रोड रोलर के पहिये
बच्चा दबा जा रहा है
पहिये के नीचे
चिपक कर विकृत हो गया है
उसका चेहरा
उसकी देह
मैंने सायकिल रोक दी
देखे अपने पहिये
सामान्य ही दिखे
साइकिल के कैरियर पर बैठा
मेरा बेटा मुस्करा रहा था
भोलेपन से
और झुक गई साइकिल एक ओर 

उम्मीदों के भार से . 

अब कल ही की बात देखिये
अखबार पढ़ते हुए
अचानक लगा
ढह गया है कुछ
भरभरा कर
गर्द का गुबार छा गया है
आसमान में
लेकिन कुछ कहाँ था ऐसा
सब कुछ सामान्य था
अखबार के सभी पृष्ठ रंगीन थे
देश के तमाम सूचकांक
विपरीत परिस्थितियों में भी
चढ़ रहे थे ऊपर ही 
हाँ सुना है कि 
'पच्चीस पैसे' के सिक्के का चलन
हो जाने वाला है बंद 

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

लीक


नहीं रहेगी 
अब लीक 
क्योंकि 
नहीं रहेगी मिटटी नरम
जिस पर बने कोई पहचान

अब बैलों के खुर
और बैलगाड़ियों के पहिये
दोनों ही नहीं रहेंगे
फिर कैसे बनेगी
गाँव  की पगडंडियों  पर
कोई लीक

लीक
जो प्रतीक थी 
विश्वास की
जिसे पकड़
आँखें मूँद
पहुँच जाया करते हैं
बैल अपने घरों तक
विश्वास के  साथ ही
मिट जायेंगे

उनके लिए
जिन्होंने कभी नहीं माना
हाथ की लकीरों को
मिट्टियों में सने
पसीने से लथपथ
आत्माओं के लिए
लीक
होती थी
भविष्य की रेखाओं सी 

बदलते समय के साथ 
मिट जायेगी 
गाँव की  सड़क की लीक 
फिर भी क्या
लीक से हट सकेंगे
गाँव/देश/समाज/दुनिया 
अपनी सोच में

कच्ची सड़कों  पर
बनाने वाला लीक 
बनाता  था
ह्रदय पर भी
पूरी संवेदना के साथ
मिटटी की महक के साथ
जिसमे संघर्ष तो होता था 
नहीं था अविश्वास
 

एक लीक 
बनाई थी  मैंने 
अपने ह्रदय में 
कि  आएगा कोई 
पहचान कर 
मिटटी और इसकी महक 
प्रतीक्षारत है लीक 
और रहेगी
मिटटी के न रहने तक भी . 

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

खिडकी से समय

खिडकी से
जो रोशनी आती है 

छनकर
लाती है अपने साथ
एक टुकड़ा समय

पसर जाता है समय
कमरे भर में
चढ़ जाता है वह
छत से टंगे पंखे पर
पंखा घूमने लगता है
पूरी गति  से
मानो धरती से हो
कोई होड़

समय उछल कर
घुस जाता है
टूटी अलमारी  में
जहाँ पड़ी  हैं
पुरानी तस्वीरों की गठरी
जिसमे हैं दादा दादी
दादी तस्वीर में भी है
दादा से हाथ भर दूर
दादी पूछती है हाल
और श्वेत श्याम तस्वीर से भी
चमक उठता है 

उनकी आँखों में इन्द्रधनुष
सातों रंग जिन्दा हो उठते हैं

समय उड़ कर
बैठ जाता है
दीवार पर टंगे
'सुभाष चन्द्र बोस' के  पोस्टर पर
जिस पर जम चुकी है 
धूल की कई कई परतें
इस बार जयन्ती पर भी
नहीं झाडी गई धूल
थोडा उदास हो जाता है समय

लगता है
मनाया गया है
किसी का जन्मदिन
दीवार पर अब भी चिपकी हैं
चमकीली झंडियाँ
खो जाता है समय
इनकी  झिलमिल में


शोर है
 कमरे में बहुत तेज़
रीमिक्स संगीत का
जिससे डर कर समय 

जाता है लिपट
किवाड़ के पीछे रखे
क्रिकेट के बल्ले  से
बल्ला देखने लगता है सपने
पैसा, आटोग्राफ, लड़की

आशंकित हो उठता है 

इस बार समय
तभी खींच दिया जाता है
खिड़की पर परदा
पसर जाती है
कृत्रिम रोशनी और छद्मता .



असहाय है समय .

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

सपनों को दिखा दो सूरज


स्वप्न 
सदियों से
तुम्हारी आँखों में
जो पल रहे हैं
इतिहास होने से पहले
उन्हें एक बार
सूरज दिखा दो

सपनो का 
होता है अपना भूगोल
अपनी दिशाएं 
अपने मौसम 
जो निर्भर होते हैं
मन के भीतर बहने वाली 
हवाओं पर

धूप में बिछा दो 
मन की चटाई
और उलट पुलट लो
सोते सपनो को
सील गए हैं
दबे दबे 
ह्रदय की  दीवारों के
किसी कोने में

लगने दो वसंती हवा
कि खिल उठेंगे
उनके मुरझाये रंग
और बोल पड़ेंगे
सोये हुए ज़ज्बात
थोड़ी साँसे मिल जाएँगी
सपनों को भी

दे दो
कुछ पंख चुनकर
जो छोड़े थे कबूतरों ने
सपनों को
भरने को उड़ान
उन्मुक्त आकाश में
करने दो
सफ़ेद सेमल के फाहों से तैरते
बादलों से मन की बातें

देर तक
रखने से बंद
अँधेरे कोठरी में 
या फिर प्राचीर के विस्तार में भी 
घुट सकता है दम
फिर ये तो सपने हैं
नाजुक से गौरैया के
नए पंख वाले बच्चों की तरह
छोड़ दो उन्हें स्वछन्द 
एक बार के लिए 

आँखों के 
सपनों को 
दिखा दो सूरज