1.
हवा
कब जाहिर करता है
अपना प्रेम!
2.
पानी का प्रेम
तो होता है
रंगहीन स्वादहीन
3.
आकाश के प्रेम को
कब समेटा जा सकता है
बाहों में
4.
आग का प्रेम
जलाता नहीं
पकाता है !
5.
धरती का प्रेम
धैर्य में है
जो बंजर होने के बाद भी
अंकुरित होने की आशा
नहीं छोड़ती !
यह कितना खूबसूरती से समझाया है कि प्रेम हमेशा जोर से नहीं बोलता। हवा चुपचाप छूकर चला जाता है, फिर भी हम उसे महसूस करते हैं। पानी अपना प्रेम बिना रंग और स्वाद के दिखाता है, लेकिन वही ज़िंदगी चला देता है। आकाश सबको खुले दिल से जगह देता है, पर किसी को पकड़े नहीं रखता। आग सिर्फ़ जलाती नहीं, वह रोटी भी पकाती है, यानी प्रेम कभी सिर्फ़ कोमल नहीं, जरूरी भी होता है।
जवाब देंहटाएंये प्रेम पाकर जीवन धन्य है !
जवाब देंहटाएंहवा कब जाहिर करती है ?
जवाब देंहटाएंवैसे पंचतत्व में विलीन होते समय सारे प्रेम एकाकार हो जाते हैं यानि मृत्यू के समय |
वाह्ह सर क्या सटीक विश्लेषण किया है आपने बहुत सुंदर।
हटाएंआग का प्रेम
जवाब देंहटाएंजलाता नहीं
पकाता है !
कितना सुन्दर है यह प्रेम
क्षिति,जल,पावक,गगन,समीर
जवाब देंहटाएंप्रेम ही औषधि प्रेम ही क्षीर
समझे जो यह रहस्य सृष्टि का
हो जाए पार वो भव के तीर
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गहन भाव उकेरती आपकी रचना अत्यंत मनभावन लगी।
सादर
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ७ नवंबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंहवा ज़ाहिर करती है अपना प्रेम जब सहलाती है हौले से गालों को और बालों को सोये हुए शिशु के
जवाब देंहटाएंयही हवा हमारे फेफड़ों में, पानी कोशिकाओं में, आकाश दिवास्वप्न में, आग जठराग्नि में और धरती हमारी क्षुधापूर्ति के लिए फल -फ़सल में भी अपने अगाध व निर्बाध प्रेम का एहसास कराते रहते हैं .. शायद ...
जवाब देंहटाएंका धरा आग गगन हवा पानी
जवाब देंहटाएंनिर्भाव अचेतन तो सब बेमानी।
बहुत सुंदर !!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शुभा जी
हटाएंbilkul sach!!
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