मंगलवार, 22 नवंबर 2011

क्यों मैं ?

यह श्रृष्टि
जो कल तक
छोटी -सिमटी सी लगती थी
आज अचानक लग रही है
बहुत विस्तृत 

मेरी सोच और
संभावनाओं से परे
प्रकृति स्वयं
एक अंग मात्र है
श्रृष्टि की संकल्पना का
सोच रहा हूँ मैं
किसी दार्शनिक की भांति जो
कल तक तुम्हारी आंचल को
समझता था ब्रह्माण्ड 

इस प्रकृति में
क्यों हूँ मैं
क्या है मेरा अस्तित्व
क्या है मेरे होने का रहस्य
कौंधते हैं ये प्रश्न
स्वयं से करते हुए वार्तालाप
श्रृष्टि के ये मूल प्रश्न
डराते हैं मुझे
भयभीत हो
मैं भागता हूँ
रास्ता नहीं मिलता है मुझे
मिलता है  बंद दरवाज़े
मैं देता हूँ दस्तक
भीतर से नहीं आती है
कोई आवाज़
गहन चुप्पी के बीच
मेरा ही प्रश्न लौट आता है
अब इन प्रश्नों का शोर बढ़ जाता है
और मैं हताश हो
बढ़ जाता हूं
सबसे ऊँचे शिलाखंड की ओर
जहाँ से लौटना
नहीं है कोई सम्भावना

क्यों हूँ मैं (?)
शेष रह जाता है
इस प्रश्न का उत्तर
इसी बीच
एक हवा का झोंका लेकर आता है
एक जानी पहचानी गंध 
मैं लौट आता हूं इसी दुनिया में
बिना किसी और प्रश्न के.  

सोमवार, 7 नवंबर 2011

कुँए का एकांतवास



हुआ करता था
एक दालान 
खलिहान के सामने 
जहाँ तीन जोड़े बैल 
करते थे दौनी 
धान, गेहूं की
इस दालान के उत्तर में था
एक कुआं

कभी सूखा नहीं 
ये कुआँ
१९३४ के भूकंप में भी 
ढहा नहीं था 
परंपरा रही है
हर बैशाख में
उड़ाही होती थी 
कुएं की 
खोले जाते थे सोते
जाग जाता था कुआं
आने वाली प्यास के लिए

समय गुज़रा
खलिहान छोटे हुए
छोटा हुआ परिवार भी
दालान के उत्तर में जो था कुआँ
साझी संपत्ति हो गई,
खेतों के टुकडो के साथ
अकेले पड़ने लगा खलिहान
बैलों के जोड़े बिक गए
दालान हो गया खाली और
पीढियां पलायन कर गईं
नहीं लौटने के लिए 
कुआँ पड़ गया अकेला 
इस दौरान  

उग आये पीपल 
कुएं की दीवारों में 
और पीपल की जड़ें 
धस गईं कुएं की नीव में 
दादा जी की प्रतीक्षारत आँखों के साथ
कुआँ भी करता रहा 
वैशाख का इंतजार 
कुएं की उड़ाही नहीं हुई 
दादी फिर भी आती रही
कुएं के पास
दादाजी के नहीं रहने के बाद भी
अंतिम समय में गंगाजल के स्थान पर
पिया उन्होंने उसी कुएं का ही पानी
अंतिम बार था जब
कुएं में डाली गई डोल-डोरी

बिना किसी भूकंप के 
कुआं खंडहर हो गया है
चला गया है एकांतवास में 
नहीं लौटने के लिए कभी. 

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

दिवाली के बाद : कुछ चित्र


१.

दीप सब बुझ चुके हैं
तेल सब हो गए हैं ख़त्म
बाती जल चुकी है आधी
कैसी यह उदासी (?) 

२.
सड़क के उस ओर के
कुछ बच्चे 
सुबह सुबह बीन रहे हैं
अधजले पटाखे, फुलझड़ियाँ
दिन भर सुखायेंगे उन्हें
शाम को होगी 
उनकी दिवाली (शायद) 

३.
घर से बाहर 
पडी हैं पिछले साल की 
लक्ष्मी गणेश की मूर्तियाँ 
विसर्जन की प्रतीक्षा में 
बाबूजी गौर से देख रहे हैं 
(ढूंढ रहे हैं कुछ साम्य )