बुधवार, 25 जनवरी 2012

गणतंत्र के ६२ वर्ष : कुछ क्षणिकाएं




१.
नीतियां 
योजनायें 
कागज़ी सलाखों में बंद
६२ वर्ष का हुआ गणतंत्र 

२. 
चुनाव
संसद 
सब महज अनुबंध 
६२ वर्ष का हुआ गणतंत्र 

पानी बिजली 
शिक्षा का
अब भी हो ही रहा है प्रबंध 
६२ वर्ष का हुआ गणतंत्र 

४.
जाति धर्म 
संप्रदाय में 
उलझा है अपना लोकतंत्र 
६२ वर्ष का हुआ गणतंत्र 

५.
बुधना सुखिया 
हरिया महुआ 
सब के सब परतंत्र 
६२ वर्ष का हुआ गणतंत्र 

६.
मस्जिद, मंदिर, गिरजाघर को 
बहुत मिले अनुदान 
सबको छत अब भी दिवा स्वप्न 
६२ वर्ष का हुआ गणतंत्र 

७. 
खाली पेट तब भी था
अब भी खाली पेट 
दूर की कौड़ी है सबको अन्न 
६२ वर्ष का हुआ गणतंत्र 

दिल्ली से दिखता है 
सब कुछ हरा भरा 
सूखे खेत मालिक को क्या करना अनशन 
६२ वर्ष का हुआ गणतंत्र 

सोमवार, 23 जनवरी 2012

बदल गया है विजय चौक का चरित्र

विजय चौक 
वैसे तो देश में 
सैकड़ो होंगे
लेकिन  
देश का सबसे प्रतिष्ठित 
विजय चौक है 
संसद  भवन  के साथ 
राष्ट्रपति भवन के सामने
उत्तरी और दक्षिणी ब्लाक के 
ठीक सामने 
जहाँ से शुरू होता है
राजपथ 

आम आदमी की बात
होती है जहाँ से


विजय चौक के 
एक ओर 
होती है 
मीडिया की बड़ी बड़ी
गाड़ियाँ कतार में
कतार में होते हैं 
नवोदित से बड़े बड़े
पत्रकार
लपकने के लिए 
छोटी से छोटी
और बड़ी से बड़ी खबर

बीच बीच में
सन्नाटा पसर जाता है
फव्वारों पर उड़ने वाली पंछी भी
दुबक जाते हैं 
सायरन के शोर में
आम आदमी वैसे तो 
होता नहीं इस सड़क पर
लेकिन एक दो जो होते हैं
भद्दी गालियों से 
और लाल लाल पुलिसिया आँखों से
डरा कर दूर कर दिए जाते हैं
विजय चौक से 
जब गुज़रते हैं 
हमारे मत से चुने
जनप्रतिनिधि 

भागते काफिले को
पकडती  है
कैमरे की आंखे 
जोर जोर से चीखता हुआ पत्रकार 
एक्सक्लूसिव खबर देता है 
पीछे होता है संसद मौन 


यहाँ के फव्वारे 
सालो भर चलते हैं 
गरीबी रेखा के नीचे वाले
नलकूप की तरह
सूखते नहीं हैं ये

समय था एक 
जब इन फव्वारों पर
कबूतर सुस्ताते थे
प्यास बुझाते थे
बिना भय
फडफडाते थे अपने पंख 
जबकि इन दिनों 
खदेड़ दिए गए हैं 
और कौवों ने 
बना लिया है अड्डा.

बुधवार, 18 जनवरी 2012

आने वाले वसंत से कुछ बातें


०.
वसंत
तुम्हारे आने की
दस्तक से ही
मन में
उठ जाती  है
एक हूक
पढने को जी करता है
वही चिट्ठी
जो बंद है
वर्षों से
बीच संदूक

१.
वसंत
देखो तो
खिले हुए फूलों को देख
कैसे ईर्ष्या  से
दहक रहा है
उस श्यामली का अंग अंग
कहो तो
कोसती नहीं होगी
तुम्हे !

२.
वसंत
मेरे कहने से
तुम रुक तो
नहीं जाओगे
लेकिन
पल भर के लिए
रुक कर देख लेना
सरसों के पीले खेतो के मेड पर
धूप सेंकती उस अल्हड की आँखों में
जहाँ अब भी
झूल रहे हैं अमलताश के गुच्छे
देखा है उसे किसी ने
इस बरस


वसंत
तुम्हारा इठलाना
सर्वथा
उचित नहीं है
क्योंकि
इस बरस
नहीं लौटेगा
उसका परदेसी
कोरी रहेगी
उसकी साड़ी
तुम जानते नहीं शायद
बेरंग होली की प्रतीक्षा
होती है कितनी
पीड़ादायक 







बुधवार, 11 जनवरी 2012

हीरालाल हलवाई : मत बनना एक ब्रांड


भाई हीरालाल
बन गए हो तुम 
एक रिटेल ब्रांड 
तुम्हारी जलेबियों का वज़न 
कर दिया गया है नियत
कितनी होगी चाशनी 

यह भी कर दिया गया है 
निर्धारित 

तैयार किया  जा रहा है 
तुम्हारे नाम का 
एक प्रतीक चिन्ह 
तुम्हारी दूकान  का 
'प्रोटोटाइप" हो रहा है तैयार 
लोग जोर शोर से लगे हैं
बनाने को तुम्हे 
एक नया ब्रांड 
पुरखों से बनी
तुम्हारी ही पहचान को
भुनाने में लगा है बाज़ार 
रहना सावधान 
भाई हीरालाल हलवाई 

तुम्हारे लड्डू, 
जलेबी, इमरती, रसगुल्ले आदि आदि 
नंगे हाथ 
अब कारीगर नहीं बनायेंगे 
समझा दिया गया है तुम्हे
'हाइजेनिक' नहीं है 
नंगे हाथ बनाना मिठाई 
पूरी तरह स्वचालित होगी 
तुम्हारी  मिठाई बनाने की फैक्ट्री 
हाथों में प्लास्टिक के पारदर्शी दस्ताने पहन 
वज़न की जायेगी  मिठाई 
तुम्हारे स्वाद को हो सकता है
करा लिया जाये पेटेंट भी 
और तैयार कर लिया जाये
सिंथेटिक फ्लेवर 
और देश विदेश में
खुल जायेंगे तुम्हारे कई स्टोर 
जिसमे तुम्हारे पुरखो की पूंजी 
उनके पसीने की गंध 
हाथ का स्वाद और
कारीगरी का निवेश है 

हीरालाल हलवाई 
एक दिन ऐसा भी आएगा
जब तुम्हारे नाम पर
लिया जायेगा 
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (ऍफ़ ड़ी आई )
और छिन जायेगा 
तुम्हारा स्वाबलंबन
तुम्हारा एकाधिकार
और अपने ही ब्रांड के 
निदेशक बोर्ड में 
नहीं रहेगा तुम्हे
निर्णय लेने का कोई अधिकार 
धीरे धीरे मिठाइयों को 
बेदखल होना होगा 
आकर्षक रैपर वाले 
चाकलेटों से 

हीरालाल हलवाई 
ब्रांड होने की प्रक्रिया में 
आने लगी है
तुम्हारी दुकान से 
प्लास्टिक की विषैली गंध !

मंगलवार, 10 जनवरी 2012

क्या हूं मैं

प्रश्न
लघु है
उत्तर शायद
जटिल

ब्रह्माण्ड के
विस्तार का
ज्ञान नहीं जब
एक मनुज की
क्या हो सकती है
सीमा ही

विज्ञान के नित नए
शोध से कहीं अधिक
प्रकृति की है
विपुल सम्पदा
फिर कहो
एक मानव की
क्या हो सकती है
कोई संपत्ति

आस्था पर
उठ रही है
जो विश्व की
उंगलियाँ
कई और प्रश्न
खड़े हो
पूछते हैं
क्या है मेरा अस्तित्व

गणना नहीं
हो सकती है
जिसकी गति का
उस से कहे कोई
रुको जो पल भर के लिए,
रौशनी कहो कभी
क्या ठहरी है
किसी के लिए

मन में
क्यों रखूँ  मैं
कोई विषाद
क्यों कहो
हो कोई
मुझे अवसाद
खाली हाथ जो आया हो
कहो कैसे हो उसका कोई अधिकार
कहो है ना मेरा
व्यर्थ ही यह प्रलाप  !

कहो है क्या
इस सरल प्रश्न का
कोई उत्तर सहज

सोमवार, 2 जनवरी 2012

विदा करते हुए पुराना कैलेण्डर


करते हुए विदा 
पुराना कैलेण्डर
कुछ नहीं बदला 

बस कुछ हिसाब 
नोट कर लिए 

नए कैलेण्डर पर 
कुछ जरुरी तिथियाँ 
नए कैलेण्डर पर  आ गईं
जो यादों में नहीं रह सकती थी

बाकी जो तिथियाँ 
यादों में, स्मृतियों में हैं
उनके लिए
नहीं कोई जरुरत

किसी कैलेण्डर की