मंगलवार, 26 मई 2015

एक अदृश्य रेखा


तय कर दी है
एक रेखा
कुछ लोग
उसके नीचे हैं
कुछ लोग ऊपर

इस रेखा के नीचे
जो रहते हैं
उनके बारे में
लगाये जाते हैं
अनुमान
क्योंकि मालूम नहीं है
रेखा के प्रकार
इस रेखा के ऊपर रहने वालों को
रेखा यह
हृदय को भी
बाँटती है
कई हिस्सों में
रेखा जो
राजधानी से निकलती है
और गाँव  तक पहुँचती  है....
यह रेखा अदृश्य है.

शनिवार, 23 मई 2015

शून्य बटा सन्नाट


अक्सर तुम 
हंसती थी  और 
कहती थी 
'शून्य बटा सन्नाटा"
मैं महसूस कर रहा हूँ 
इसे इस वक्त ! 

सूने खलिहान में जो पसरा हुआ है शून्य 
वही सन्नाटे में बदल गया 
और ओसारे पर 
टंगी हुई है कील पर 
उसकी कमीज अब भी 
जिसने टांग लिया खुद को 
मुहाने के पीपल से 
महाजन के अगली दस्तक से पहले 


यही शून्य फैला हुआ है 
बड़ी सोसाइटी की लिफ्ट में 
जो सन्नाटे के साथ ले जाता है 
एक बिंदास लड़की तो तेईसवीं मंजिल पर 
वह कभी नहीं लौटती है 
धप्प की जोर आवाज़ से 
टूटती है तन्द्रा , फिर से शून्य हों जाने के लिए

मेट्रो तेजी से बढ़ जाती है 
एक शून्य की तरह और 
छोड़ जाती है एक सन्नाटा 
उस बूढ़े के साथ जो आया है 
महानगर में मिलने अपने बेटे से 
और ढूंढ रहा है पता 

ऐसे कई शून्य है मेरे इर्द गिर्द 
और चारो ओर मेरे 
पसरा हुआ अनन्य सन्नाटा 

और इनके बीच मैं 
विभाजक रेखा की भांति 
टंगा हुआ हूँ 
अनंत की तरह ! 

गुरुवार, 21 मई 2015

घुटता हुआ समय




अभी अभी 
मैं मिल कर आया हूँ 
एक पागल विज्ञानिक से 
जो देश के एक प्रयोगशाला में 
बनाता हुआ एक तकनीक 
चुक गया 
और सात समंदर पार से आकर एक बाज 
छा गया देश पर 

अभी अभी 
मैं मिलकर आया हूँ 
एक पागल किसान से 
जो खेतो में हत लिया है 
प्राण 
और सात समंदर पार से आकर एक बीज 
अंकुरा रहा है विषवेल खेतों में 

अभी अभी 
मैं मिलकर आया हूँ 
एक पागल कामरेड से 
जो भट्टी में डाल दिया गया था 
बड़ी कंपनी की बड़ी फैक्ट्री बड़े फर्नेस में  
और सात समंदर पार से आयातित नीतियां 
धमका रहा था 
कांट्रैक्ट मजदूरों को 


अभी अभी 
मैं मिल कर आया हूँ 
घुटते हुए समय से ! 


सोमवार, 18 मई 2015

जब नहीं होता कहने को कुछ

जब नहीं होता 
कहने को कुछ 
तब भी 
चल रही होती है 
अकेली एक नदी 
सागर की ओर 
लौट रही होती है 
गौरैया 
लेकर एक दाना 
अपने चोंच में 

कोई किसान 
रोप रहा होता है 
एक बीज 
विश्वास से 
और कुछ बच्चे 
बना रहे होते हैं 
उगते सूरज का चित्र 

उंगलिया लिखती हैं 
मिटटी पर 
किसी का नाम 
जब नहीं होता
कहने को कुछ ! 

गुरुवार, 14 मई 2015

हताश समय



दरवाज़े सब हैं 
बंद 
खिड़कियों पर 
मढ़ दिए गए हैं 
शीशे 

हवाओं के लिए भी 
नहीं है कोई सुराख़ 
और रौशनी कृत्रिम हो गई है 

आसन्न है अंत 
हताश समय है यह 

मंगलवार, 12 मई 2015

पन्ने


फड़फड़ा के रह जाते हैं 
पन्ने 
कभी कोरे रह जाते हैं 
कभी कोई लिख जाता है दुःख 
कोई लिख जाता है मृत्यु 
पतझड़ 
सूखा 
बाढ़ 
पन्ने अकेले टूट जाते हैं 
फड़फड़ा के रह जाते हैं 

नींद में पन्ने 
खुश हो जाते हैं 
जब तुम लिख जाती हो 
प्रेम !

मंगलवार, 5 मई 2015

सुबह सुबह



उठ रहे हैं 
फुटपाथ से लोग 
जिनके घर नहीं हैं 
सुबह होने से पहले 
उनके लिए होता है भोर 

गाड़ियों का शोर 
थोड़ा बढ़ गया है 
बढ़ गई है 
चहलकदमियां 
जीवन की 
जो सोई थी देर से 
लेकिन जग गई है जल्दी 

होर्डिंग पर टंगी लड़की 
ओस में नहाकर 
अभी अभी उतरी है 
और कूड़ा बीनने वाली लड़की 
नहाईं नहीं कई दिनों से 

अखबार वाला साइकिल हांकता है 
जल्दी जल्दी 
जितनी तेज़ी से चलती है छापे की मशीन 
कहाँ कभी किसी ने बनाया उसे 
पहले पन्ने का आदमी 
जबकि पहला आदमी है वह 
जो सूंघता है हर रोज़ 
स्याही की गंध , खबरों की शक्ल में 

चाय की पहली खेप की गंध 
दूर तक जाती है 
और 
एक चुप्पी छा जाती है 
हमारे बीच 
सुनने की कोशिश करते हैं 
चिड़ियों के झुण्ड का समवेत स्वर 
तभी 
म्युनिस्पलिटी की गाड़ी 
गड गड कर गुज़रती है 
मरे हुए जानवर को लेकर 

चुप्पी टूटती है 
टूटता है बहुत कुछ 
सुबह सुबह 

सोमवार, 4 मई 2015

मील का पत्थर

मील का पत्थर 
रास्ते में यू ही रहता है 
धरती की छाती मे धंसा भीतर 
उस पर खुदा होता है 
जगह का नाम 
और अगले जगह की दूरी 

मील का पत्थर 
बोलता नहि है कुछ 
बोलना जरूरी नहि होता 
हर बार 

राही हमेशा 
निकल जाते हैं आगे 
मील का पत्थर 
मौन देखता है 

शुक्रवार, 1 मई 2015

मेरे मजदूर दोस्‍त

बात 2004  की है।  घर बन रहा था।  ज्योति दिन रात लगी रहती थी मजदूरों-ठेकेदारो के संग।  मैं फ्रीलांसिंग पर फ्रीलांसिंग किये जा रहा था  पैसे के लिए।  बैंक लोन कम पड़ गया था।  दीवार  छत का काम गंगा प्रसाद कर रहा था।  मेरी ही उम का था।  और लकड़ी यानि दरवाजे चौखट खिड़की का काम बैजनाथ शर्मा कर रहे थे।  उनकी उम्र मुझ से कोई दस पंद्रह साल अधिक रही होगी।   दोनों ही बिहार के थे।  मेरे जिले के पास के ही।  समस्तीपुर से कट कर बना जिला रोसड़ा।  
गंगा प्रसाद बहुत मेहनती था।  इंजीनियर जैसा दिमाग था उसका।  आर्किटेक्ट को भी समझा देता था कई बार।  एक बार हमसे मिलवाने के लिए समस्तीपुर से अपनी पत्नी और बच्चे को लेकर आया।  अच्छा लगा था हमें।  ज्योति ने उसके बच्चे और पत्नी को कपडे आदि देकर विदा किया था जैसे रिश्तेदारो को करते हैं।   अपने बच्चे को पढ़ाने के बारे में बहुत चर्चा करता था।  बाद में साथ चाय पीने से लेकर खाने भी साथ लगे थे।  चार पांच महीने में एक चक्कर लगा ही लेता है। आज भी।  इधर  ठेकेदारी चल पड़ी है उसकी।  पिछले रविवार को चार हज़ार फुट का लिंटर डाला है। फोन पर खुश होकर बताया था उसने।उसकी ख्वाहिश थी हीरो हौंडा की बाइक लेने की।  लेकिन जब लेने लगा तो हीरो और हौंडा कम्पनियाँ अलग हो चुकी थी।  बहुत कन्फ्यूज़्ड था गंगा प्रसाद  फिर मैंने उसे इन कार्पोरेट मिलान और विलय एवं विच्छेद की कहानी बताई।  जब उसने बाइक खरीदी तो सबसे पहले मुझे दिखने आया।  उसका बेटा नवोदय विद्यालय में पढ़ रहा है।  सातवी में।  पिछले साल हज़ारों बच्चो के बीच उसका चयन हुआ था।  उपकार प्रकाशन की गाइड मैंने ही खरीद कर दी थी जब फ़ार्म भरने पिछले साल गाँव जा रहा था।  गंगा बहुत ईमानदार और मेहनती था।  आम  मजदूरों से अलग थी उसकी आदतें जैसे बीड़ी नहीं पीना  काम चोरी नहीं और इंजीनियर के साथ बहसबाजी करके चीज़ो को गहराई से समझ लेना।  

दूसरी मंजिल की छत डलने वाली थी।  सीमेंट वाला ट्राली सीमेंट को बीच सड़क पर छोड़ गया रात को।  मजदूर सब भाग गए थे।  मैं और गंगा बचे थे।  दोनों ने मिलकर साठ  बोरी सीमेंट को उठा कर रख दिया था गोदाम के भीतर।  आश्चर्यचकित था वह कि मैं कैसे पचास किलो की सीमेंट की बोरी उठा पा रहा हूँ।  उसे मेरे भीतर एक मजदूर भाई दिखा।  
अब गंगा मुझे मजदूर या ठेकेदार नहीं लगता।  दोस्त बन गया है।    मजदूर दिवस पर गंगा प्रसाद को बहुत बहुत शुभकामनायें और अपने भीतर के मजदूर को भी।  ऐसे कई मजदूर दोस्त हैं मेरे। उन सबको सलाम ।