बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

दीपावली : कुछ चित्र



१.
महानगर की
लालबत्ती पर
कटोरे में 
लक्ष्मी गणेश की मूर्ति लिए
एक करीब सात साल का लड़का 
ठोक रहा है बंद शीशा
मना रहा है दीपावली 

२.
दीपावली पर
हार्दिक शुभकामना के कार्ड 
छापते छापते
सोया नहीं है वह
पिछले कई रातों से
आँखें दीप सी चमक रही हैं
ओवर टाइम के रुपयों को देख 
आज सोयेगा मन भर 
पटाखों के शोर के बीच 
मनायेगा दीपावली 

मिठाई के डब्बे पर 
चढाते चढाते
चमकीली प्लास्टिक की पन्नी
आँखों के चमक भी 
हो गईं हैं प्लास्टिक सी 
अब नहीं देखता है वह
सामने खड़े ग्राहक की ओर
वह तो मनाता है दीपावली 
दशहरा, तीज, करवाचौथ को भी 

४.
गोबर से लीपे हुए आँगन में
माँ करती है इन्तजार
दीप जलते जलते 
बुझ जाता है
आधी रात के बाद
वर्षों से कई माएं मानती हैं
ऐसे ही दीपावली 

५. 
जलाते हुए तुलसी पर एक दीप
उन्हें मेरी याद जो आ गई
दिए की लौ से 
जल सी गई उंगलिया 
दीप और आँखों का तेज़
बढ़ सा गया 
रंगोली आ के टिक गयी 
गालों पर 
दीपावली विशेष हो गया 


ज्योतिपर्व दीपावली की हार्दिक शुभकामना ! 

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

धूप बातें करती हैं

कंक्रीट की अट्टालिकाओं में 
उगे काँटों से छलनी 
सुबह की धूप
लौट जाती है
दोपहर में बंद दरवाज़े से
बजा कर घंटी
कोरियर बॉय की तरह

शाम को बंद खिडकियों से
झाँकने के जुर्म में
जो चढ़ा दिए गए हैं मोटे परदे
उनसे टकरा कर
चोटिल होती धूप
चिडचिडी रहती है 

जबकि दूर मेरे गाँव में 
 सुबह सुबह
रसोईघर की टूटी खिड़की से झांक कर
चूम जाती है धूप
माँ का माथा
पहली फुर्सत में
पश्चिम के ओसारे पर
खेलती है पूजास्थल से हटाये गए
बासी फूलों  के साथ

माँ के नहा कर लौटने के बाद 
धूप आँगन के इस ओसारे से 
उस ओसारे पर बैठती है
बतियाती है फुर्सत से 
बांटती है नई पुरानी बातें
कई बार माँ  खोल देती है
यादों की संदूकची
धूप के सामने ही
और ताज़ी हो जाती हैं
यादें, मेरे पहले कपडे,
ननिहाल से मिली कटोरी चम्मच 
जो दिए थे नानी ने मुंडन पर
माँ रोती है नानी को करके याद 
गीली हो जाती है दोपहर 
पिघल जाती है धूप  भी  

बहुत बातें करती है
मेरे गाँव की धूप

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

गए जो हो परदेस

(गाँव से दिल्ली आये ग्यारह साल हो गए. गाँव से जुड़ा रहा गहरे से. लेकिन कभी दशहरा  पर गाँव नहीं जा पाया था इस दौरान. इस बार गया था. पूरे दस दिनों के लिए. त्यौहार के मौके पर पति के परदेश से लौटने पर प्रतीक्षारत पत्नियों की  आँखों में चमक को देख उनकी उदासी का अंदाज़ा भी लगा. आज भी हजारों स्त्रियाँ अकेली होती हैं पति के परदेस  जाने के बाद. शायद हम समझ ना सकें उन्हें. वह दर्द नहीं टीस होती है जिसमे निकल  जाती है पूरी उम्र . उन्ही स्त्रियों को समर्पित ये क्षणिकाएं ) 

१. 

भीत
बारहों महीने
गीली रहती है
जब से तुम गए हो
परदेस 

२.

चूल्हा 
अब अकेला
नहीं जलता 
साथ देती हूं मैं
तुम्हारे जाने के बाद 

३.

ओसारे पर
धूप चली जाती है
करके इन्तजार
जैसे मैं 

४.

गाय हो गई है
गाभिन 
ताने मैं सुन रही हूं 
क्या करू  इर्ष्या 
अब इसी से 

५. 

तुम जो पहिरा के गए थे
हरी वाली चूड़ी 
अब भी वही चल रही है
कलाई में 
रहते थे तो 
कितनी टूटती थी ये 
मजबूत है 
हम दोनों  का जियरा .

६.
पिछली चिट्ठी में
जिक्र था सबका
बस मैं ही तो 
रह गई थी
फिर भी है
अगली चिट्ठी का 
इन्तजार 

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

दूरियां


(अपनी पत्नी के लिए जो सप्ताहभर दूर रही )

दूरियां 
नहीं मापी जाती है
किलोमीटर में
सदैव 

२.
कुछ दूरियाँ 
मापी जाती हैं
दिनों में 
महीनो में
सालों में
युगों में


दूरियाँ 
दिखाई नहीं देती हैं
फिर भी होती है
कई बार

कुछ दूरियाँ
दूरियाँ नहीं होती 
होकर भी 

कुछ दूरियां 
की जाती हैं
महसूस
माप नहीं सकते
आप उन्हें

दूरियां 
लाती हैं 
निकटता 
कई बार 

सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

सरगर्मी

 

देश के
किसी प्रान्त का
एक विधान सभा क्षेत्र है यह
किसी भी  राज्य का
हो सकता है
हो सकता है किसी भी
राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व
इस विधान सभा क्षेत्र में

फिर से
हो रहे हैं चुनाव
होने लगे हैं
चुनावी दौरे
एक ही मूल के
अलग अलग रूप में, रंग में
आने लगे हैं राजा
बनने लगी है
रणनीति
इसके विकास की
इसके काया कल्प की
नए राज के पहले सौ दिन में ही
बना दिया जायेगा इसे स्वर्ग
सुना जा रहा है
यह नारा भी
अलग बात है कि
ऐसे दौरे होते हैं
हर पांचवे साल
लगते हैं
मिलते जुलते नारे

राजाओं के साथ साथ
पत्रकारों के भी दौरे शुरू हो गए हैं
कुछ लेकर आते हैं  कापी-कलम
तो कुछ लाते हैं कैमरे
जो जितना ताम-झाम लेकर आता है
सुनने  में आता है कि
उतना ही  ऊँचा दाम पाता है
चुनाव के इस मौसम में

जो उत्साही पत्रकार
ले रहा है
विभिन्न कोणों से
टूटी सड़क का चित्र
उसे मालूम नहीं है कि
उसके प्रभारी संपादक महोदय के घर
भिजवा दिया गया है
चढ़ावा
कलम की कीमत इसी समय
पता लगती  है

पत्रकारों के बाद
मीडिया कम्पनियाँ आती हैं
बड़े दल के साथ
कुछ गीतकार होते हैं
कुछ विज्ञापन लेखक होते हैं
काले शीशे के पीछे से
भांपते हैं
यहाँ की गर्मी
मतदाताओं का मन
उनके पसंद के गीत पर
गुनगुनाने लगता है गीतकार
पैरोडी
दावा करने लगती है
मीडिया कंपनी जीत का
हर रंग के राजाओं के चेहरे खिल उठते हैं
नई पैरोडी सुन कर

मीडिया कंपनी के रणनीतिकार
तेज़ी से लिखने लगते हैं
हर नुक्कड़ हर चौराहे का नाम
जहाँ लगने  हैं बड़े बड़े होर्डिंग्स
गगन चुम्बी कट आउट्स
किराये पर ले ली जाती  हैं दीवारें
कुछ कब्ज़ा ली जाती हैं

रातो रात टंग जाते हैं
बैनर्स पोस्टर्स
चीन से मंगाए गए
सस्ते फ्लेक्स पर
देश के स्वाभिमान और संप्रभुता के लिए
मर मिटने वाले राजाओं के भी


समानांतर रूप  से
तैयार  हो  रही  है
अलग  अलग  रंगों  की  सेनाएं
जो  सेवा  देंगी
तन, मन, धन  और  "गन"  से भी

अर्थशास्त्री  अलग  से
बना  रहे  हैं  योजनायें
समाजशास्त्री  कर   रहे  हैं
अलग अलग मानको पर अध्यनन
जाति उपजाति  धर्म  उपधर्म
सब  की  हो   रही  है
मत-शास्त्रीय विशेष गणना
इस  विधान  सभा  क्षेत्र  के   लिए

युवाओं की
बना ली गई है
अलग सूची
जिनके लिए जुटाई जाएँगी
तमाम सुविधाएँ
क्योंकि युवा देश है अपना
सबसे  अधिक मतदाता
युवा ही हैं

राष्ट्रीय औसत से
कम साक्षरता
कम रोज़गार
अधिक गरीबी वाले
इस विधान सभा के लिए
बड़े बड़े लोग बना रहे हैं
रणनीति

साहब !
नहीं है यह
मेरा विधानसभा क्षेत्र ही
आपका भी हो सकता है
देखिये तो खोल खिड़की. .