(कोयल मजदूरों की कालोनी में हम पले बढे . बहुत करीब से शोषण देखा है. और देखा है हड़ताल में हिस्सा लेते मजदूरों को. सरकार पर अब कोई असर नहीं होता इन हडतालों का क्योंकि जनसरोकारों से दूर होती गई है सरकार. आज भारत बंद है. एक कविता हडतालियों मजदूरों के नाम )
वे चाहते हैं
होठ सिले रहें
और बंद हो जाये
स्वर
और बंद हो जाये
स्वर
ताकि न लगे कोई
नारा कभी
शासन के विरुद्ध
नारा कभी
शासन के विरुद्ध
चाहते हैं वे
उँगलियाँ
न आयें कभी साथ
बनाने को मुट्ठी
न आयें कभी साथ
बनाने को मुट्ठी
जो उठे प्रतिरोध में
ठिठके रहे
कदम
एक ताल में
न उठे कभी
सदनों की ओर
वे चाहते हैं
ठिठके रहे
कदम
एक ताल में
न उठे कभी
सदनों की ओर
वे चाहते हैं
छीन लेना
हक़ जीने का
विरोध जताने का।
हक़ जीने का
विरोध जताने का।
बेहतरीन रचना...
जवाब देंहटाएंसशक्त अभिव्यक्ति...
सादर
अनु
बहुत सुंदर लाजबाब सशक्त अभिव्यक्ति,,,,
जवाब देंहटाएंRecent Post दिन हौले-हौले ढलता है,
वे सब कुछ अपने हिसाब से चाहते हैं ....
जवाब देंहटाएंकभी हम बनते वे, कभी वे बनते हम.
जवाब देंहटाएंमूक रहें जन,
जवाब देंहटाएंतप्त सहें मन,
क्यों उत्सुक हैं,
कमतर जीवन।
बहुत ही सशक्त अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंऔर उन्हें हक मिले मनमानी करने का..
जवाब देंहटाएंtruly said .govt. hardly thinks for them who have made them in govt.
जवाब देंहटाएंसच कहती रचना
जवाब देंहटाएंआवाज़ दबाई नहीं जा सकती...
जवाब देंहटाएंसटीक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंएक सशक्त रचना।
जवाब देंहटाएंवे चाहते हैं
जवाब देंहटाएंहोठ सिले रहें
और बंद हो जाये
स्वर
ताकि न लगे कोई
नारा कभी
शासन के विरुद्ध.
सरकार को इस तरह के प्रदर्शन और विरोध नाकाबिले बर्दाश्त है और यह भी सच है है कि उन्हें कोई अन्य तरीके भी हजम नहीं है.
सुंदर सशक्त कविता.
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जवाब देंहटाएंबहुत खूब !
जवाब देंहटाएंबहुत स्पष्ट ओर प्रभावी .... अगर उनका बस चले तो साँसें भी गिन गिन कर लेने दें ... सामयिक रचना है अरुण जी ...
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