बुधवार, 30 दिसंबर 2009

एक बीज बोयें

नदियाँ सूख रही हैं
पेड़ हो रहे हैं नंगे
आसमान की स्याही सूख रही है
और काली पर रही है हरियाली

अब चिड़ियों के लिए महफूज़ नहीं है आकाश
डरती हैं जंगलों में हिरन
पपीहे खो रहे हैं स्वर
और बनावती महक वाले फूलों से
भर हुआ है बाज़ार

इस बीच
चलो एक अच्छा काम करें हम
धरती के गर्भ में एक बीज बोयें हम
और
आकाश की छाती पर
बनायें भविष्य का इन्द्रधनुष !

चलो
एक बीज बोयें !

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

पतंगों की तरह

पतंगों की तरह उडती हूँ
आडम्बरों की डोर से बंधी
फरफराती हूँ
विकृत परम्पराओं के थपेड़ों से
कभी नीचे कभी ऊपर
मरती हूँ लोल
कसमसाती हूँ सदा तोड़ देने को
साड़ी जंजीरें
हो जाना चाहती हूँ मुक्त
बन्धनों से

पर
ज्यों ही नीचे देखती हूँ
भय होता है
भविष्य के प्रति
कटी पतंगों की तरह
कहीं फँस ना जाऊं
अपनों के ही वृत्त जाल में
या फिर
पिस ना जून
पुनः उसी समाज के हाथों
पतंगों कि तरह
जिसने उड़ाया है मुझको
आडम्बरों केई डोर में
बांध कर !

गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

कल रात एक सपना देखा

प्रिये
बहुत दिनों बाद
कल रात मुझे आयी नींद
और नींद में देखा सपना

सपना भी अजीब था
सपने में देखि नदी
नदी पर देखा बाँध
देखा बहते पानी को ठहरा
नदी की प्रकृति के बिल्कुल विपरीत

बहुत दिनों बाद
कल रात मुझे आयी नींद

मैं तो डर गया था
रुकी नदी को देख कर
सपने में देखा कई लोग
हँसते, हंस कर लोट-पोत होते लोग
रुकी हुई नदी के तट पर जश्न मानते लोग

नदी को रुके देख खुश हो रहे थे लोग
थोक रहे थे एक दूसरे की पीठ
जीत का जश्न मन रहे थे लोग

प्रिये
रुकी नदी पर हँसते लोगों को देख कर
भयावह लग रहे थे लोग
बहुत दिनों बाद
कल रात मुझे आयी नींद

सपने में देखा साप
काला और मोटा साप
रुकी नदी के ताल में पलता यह साप
हँसते हुए लोगों ने पाल रखा है यह साप
मैं तो डर गया था
मोटे और काले साप को देख कर

बहुत दिनों बाद
कल रात मुझे आयी नींद

प्रिये
मैं तोड़ रहा था यह बाँध
खोल रहा था नदी का प्रवाह
मारना चाहता था काले और मोटे साप को

ताकि
नदी रुके नहीं
नदी बहे , नदी हँसे
नदी हँसे ए़क पूर्ण और उन्मुक्त हंसी

और लहरा कर लिपट जाये मुझ से

बहुत दिनों बाद
कल रात मुझे आयी नींद

प्रिये

कल रात sapne में हंसी थी नदी
मुझसे लिपट कर ए़क उन्मुक्त हंसी
और नदी बोली
कोई पूछे तो कहना
रुकना नदी की प्रकृति नही....

रुकना नदी की प्रकृति नही...