मंगलवार, 17 जुलाई 2018

मैं आम आदमी हूँ, भीड़ हूँ - कार्ल सैंडबर्ग

मैं आम आदमी हूँ, भीड़ हूँ - कार्ल सैंडबर्ग 
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मैं आम आदमी हूँ, भीड़ हूँ , जनसमूह हूँ,
क्या आप जानते हैं कि दुनिया के सभी महान काम मेरे माध्यम से किए जाते हैं?
मैं मजदूर, आविष्कारक, दुनिया के भोजन और कपड़े का निर्माता हूं।
मैं दर्शक हूं जो गवाहों है इतिहास का । नेपोलियन मुझ से ही पैदा होते हैं और लिंकन भी । वे मर जाते हैं। और फिर मैं कई और नेपोलियन और लिंकन पैदा करता हूं।
मैं बीज हूँ धरती के गर्भ में जाने के लिए । मैं खेत हूँ जो अंत तक जुतता रहेगा । भयानक झंझावात मुझसे गुज़र जाते हैं। मैं भूल जाता हूँ । मुझमे जो कुछ भी है चूस लिया जाता है और छोड़ दिया जाता है । मैं भूल जाता हूँ । सबकुछ मेरे पास आती है लेकिन मौत नहीं । मैं निरंतर काम में लगा रहता हूँ जो कुछ भी मेरे पास होता है मैं छोड़ देता हूँ । मैं भूल जाता हूँ ।
कभी-कभी मैं गुर्राता हूँ । खुद को झंझोरता हूँ और कुछ लाल छींटें फैला देता हूँ ताकि इतिहास याद रखे मुझे । और फिर मैं भूल जाता हूँ ।
जिस दिन मैं , आम आदमी , सीख जाऊँगा याद रखना , जिस दिन, मैं आम आदमी, कल की गलतियों से सीखना शुरू कर दूंगा, और नहीं भूलूंगा कि किसने पिछली बार लूटा था मुझे, ..उस दिन दुनिया भर में कोई भी वक्ता अपनी आवाज़ में भरकर कुटिलता और चेहरे पर उपहास भरे मुस्कान के साथ नहीं बोलेगा - आम आदमी ।
तब लौटेगा आम आदमी, भीड़, जनसमूह के दिन ।
अनुवाद : अरुण चन्द्र रॉय
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मूल कविता

I Am the People, the Mob

BY CARL SANDBURG
I am the people—the mob—the crowd—the mass.
Do you know that all the great work of the world is done through me?
I am the workingman, the inventor, the maker of the world’s food and clothes.
I am the audience that witnesses history. The Napoleons come from me and the Lincolns. They die. And then I send forth more Napoleons and Lincolns.
I am the seed ground. I am a prairie that will stand for much plowing. Terrible storms pass over me. I forget. The best of me is sucked out and wasted. I forget. Everything but Death comes to me and makes me work and give up what I have. And I forget.
Sometimes I growl, shake myself and spatter a few red drops for history to remember. Then—I forget.
When I, the People, learn to remember, when I, the People, use the lessons of yesterday and no longer forget who robbed me last year, who played me for a fool—then there will be no speaker in all the world say the name: “The People,” with any fleck of a sneer in his voice or any far-off smile of derision.
The mob—the crowd—the mass—will arrive then.

भीड़

भीड़ जो कल
प्रतिरोध का विवेकपूर्ण यन्त्र था
आज  एक हथियार है
विध्वंसक
जो हत्या कर सकता है
विचारों का

भीड़ का कोई चरित्र नहीं होता
इसकी कोई नैतिकता भी नहीं
न ही कोई संविधान है इनका

भीड़ का कोई रंग नहीं होता
ये अपने ऊपर ओढ़ लेते हैं
गमछा सुविधा के रंग का
कभी भगवा, कभी हरा ,
कभी लाल तो कभी तिरंगा

यह एक षड़यंत्र  है सुनियोजित
अफवाहों की ईंधन इसे बना देती है
और भी हिंसक

हम सब होते जा रहे हैं
भीड़ के हिस्से

मंगलवार, 10 जुलाई 2018

पहाड

भारतीय अंग्रेजी कविता के प्रमुख नामों में शामिल निसीम एजेकिल की एक कविता 'दी हिल" एक फिलोसोफिकल कविता है। मेरे समझ के अनुसार जीवन पहाड़ सा है, जितना इसे हम जानते हैं, उतना नहीं भी, जितना है हमारे साथ है, उतना ही अकेला भी। इस अंग्रेज़ी कविता का अनुवाद करने की कोशिश की है। अनुवाद बहुत बढ़िया नहीं हो पाया है। फिर भी।
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पहाड
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दृढ़ता के साथ अकेला खड़ा
यह पहाड़
अन्य पहाड़ों की तरह
सबके लिए सुलभ है
अमिट छाप छोड़ता है यह मस्तिष्क में
अनदेखा नहीं कर सकते इसे
बशर्ते कि कोई भारी जोखिम में फंसा हो।
इसका आनंद दूर से न उठायें
यह इतना भी दूर नहीं कि
आप पहुँच न सकें
यह खेल है
आरोहण के लिए।
एक पहाड़ मांगता ही क्या है
ज़ज़्बे से भरा आदमी
जैसे पत्थरों को फाड़
निकलता है दूब , फूल
सामना करता है सूरज का
और झुलस जाता है।
मुझे स्वयं से कितनी बार
कहना चाहिए
औरों से क्या कहूँ कि
करो स्वयं के हौसले पर भरोसा ,
हर बात में, हर मौके पर
बार बार।
और जब एक बार आप
जीवन का आनंद लेना शुरू करते हैं तब
क्या अस्तित्व ?
क्या जीवन ?
कौन करता है इनकी फ़िक्र
हाँ ! मैं कविता की बात नहीं कर रहा
मैं बात कर रहा हूँ तिल तिल
होने वाले अपमानो की
जिसे नाम देते हैं जीवन का।
मैं कहता हूँ : इसे ख़त्म करो
मैं कहता हूँ : तुम्हे पहाड़ों से करना होगा प्रेम
तुम हो क्रोधित ,
तुम हो अधीर
कि तुम क्यों पहाड़ पर नहीं हो
हालाँकि दान-पुण्य का काम है
फिर भी स्वयं को माफ़ मत करो
विडंबना भरे जीवन
या स्वीकार्यता से संतुष्ट मत होना
किसी व्यक्ति को मरते हुए
हंसना नहीं चाहिए
आराम से मरते हुए आप
अलग समय काल में चले जाते हैं
जो स्वयं पहाड़ है
और आपको लगता रहा है कि
आप इससे परिचित हैं।
- अनुवाद : अरुण चन्द्र रॉय
मूल कविता


The Hill
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This normative hill
like all others
is transparently accessible,
out there
and in the mind,
not to be missed
except in peril of one's life.
Do not muse on it
from a distance:
it's not remote
for the view only,
it's for the sport
of climbing.
What the hill demands
is a man
with forces flowering
as from the crevices
of rocks and rough surfaces
wild flowers
force themselves towards the sun
and burn
for a moment.
How often must I
say to myself
what I say to others:
trust your nerves—
in conversation or in bed
the rhythm comes.
And once you begin
hang on for life.
What is survival?
What is existence?
I am not talking about
poetry. I am
talking about
perishing
outrageously
and calling it
activity.
I say: be done with it.
I say:
you've got to love that hill.
Be wrathful, be impatient
that you are not
on the hill. Do not forgive
yourself or other,
though charity
is all very well.
Do not rest
in irony or acceptance.
Man should not laugh
when he is dying.
In decent death
you flow into another kind of time
which is the hill
you always thought you knew.
- Nissim Ezekiel