दो दशक से अधिक से
वह फेंक रहा है अखबार
मेरे तीसरे मंजिल मकान के आंगन में
सर्दी, गर्मी, बरसात में
गाहे बगाहे नागा होते हुए।
वह कब जाता था अपने गांव
यह उसके बेटे के आने से पता चलता
जो नहीं फेंक पाता था तीसरी मंजिल पर अखबार।
समय के साथ
अखबार मोटे होते चले गए
खबरों का स्थान ले लिया
चमकीले विज्ञापनों ने
श्वेत श्याम अखबार
रंगीन होते चले गए
और खड़ा रहा अखबारवाला
अपनी जगह वहीं।
देश की अर्थव्यवस्था बदली
उसे पता चला विज्ञापनों से
जबकि उसकी अर्थव्यवस्था
थोड़ी संकुचित ही हुई इस दौरान
घटते अखबार पढ़ने वालों के साथ।
पहले वह अखबारों के साथ लाया करता था
पत्रिकाएं
अब न तो पत्रिकाएं हैं न पढ़ानेवाले
मालिकान दे रहे हैं एक दूसरे को दोष
और समझ में नहीं आ रहा है अखबारवाले को
कि कौन सही है कौन गलत
वह स्वयं को कटघरे में फंसा महसूस कर रहा।
आज सुबह सुबह
वह कई बार कोशिश करके भी
नहीं फेंक पाया तीसरी मंजिल पर अखबार
साइकिल चढ़ते हुए थोड़ा लड़खड़ाया भी
थोड़ा हाँफता सा भी लगा वह
मैंने हंसकर कहा
"चच्चा बूढ़े हो रहे हैं, अखबार नीचे ही रख दिया कीजिए!"
मुझ अपनी हंसी, स्वयं ही चुभ गई
अखबार खोला तो पता चला कि
बैंक में छोटी बचत बहुत घट गई है
नहीं मालूम इस घटती बचत में
अखबारवाले चच्चा शामिल हैं या नहीं !
गहन रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आलोक जी
हटाएंअत्यंत सारगर्भित रचना।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद विश्वमोहन जी
हटाएंनहीं मालूम इस घटती बचत में
जवाब देंहटाएंअखबारवाले चच्चा शामिल हैं या नहीं !
बहुत खूब... सटीक...
चच्चा बचत क्या करेंगे... अखबार तो बूढ़ा जो हो गया ।
धन्यवाद सुधा जी ।
हटाएंबहुत मर्मांतक शब्द चित्र है अरुण जी! हर अखबार वाले की यही वेदना है! और इस वेदना में बुढापा भी हो तो ये और बढ़ जाती है! अखबार का स्वर्णिम युग बीत गया! अब चचा भी अशक्त हो चले! छोटी बचत का हिसाब पुराना हुआ! 🙏
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा संक्षिप्त किन्तु मार्मिक है रेणु जी । धन्यवाद
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंसारगर्भित रचना.
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