अभी
इस देश में
देह नही बिकते
लोग भूखे नही सोते
किसान आत्महत्या नही करते
गाँव को सडको की जरुरत नही
अभी
इस देश में
लोग विस्थापित नही हो रहे
लोग शरणार्थी नही
रोटियां कम नही हो रही
लोगों को रोजगार की जरुरत नही
अभी
इस देश में
निर्माण-परब मनाया जा रहा है।
मीडिया की आँखें
इन दिनों इस ओर नही आती
इस ओर है गुफ्फ़ अँधेरा
और जिस ओर है मीडिया की नज़र
उधर की चौंधियाती रौशनी में
कुछ नज़र नहीं आता
अभी
इस देश में
निर्माण-परब मनाया जा रहा है ।
जिस ओर है मीडिया की नज़र
जवाब देंहटाएंउधर की चौंधियाती रौशनी में
कुछ नज़र नहीं आता ......
sach kaha...sab upri aawaran hai........
अरुण जी,
जवाब देंहटाएंरश्मि जी के द्वारा आपके इस रचना को पढ़ने का सुअवसर मिला| देश के सामाजिक-आर्थिक हालात और मीडिया के रुग्न अवस्था पर कटाक्ष है आपकी रचना में| उत्तम और सारगर्भित रचना केलिए बधाई और शुभकामनायें|
arun ji,
जवाब देंहटाएंdesh ke halat par likhi aapki rachna bahut sarthak hai...aaj kal media jis par meharbaan ho jaye wahi dikhayi deta hai...desh ki samasyayen peechhe rah jati hain....sundar rachna ke liye badhai
ek satik kavita desh n media ki bayani par............
जवाब देंहटाएंअरुण जी,
जवाब देंहटाएंरश्मि के माध्यम से आपके "सरोकार" तक पहुँची हूँ. आपकी सभी कविताओं को पढ़ा.जीवन के अलग - अलग सन्दर्भों को छूती हुई आपकी
रचनाएँ कुछ सोंचने को बाध्य करती हैं, विशेष कर " टूटे हुए खिलोने".
__किरण सिन्धु.
मीडिया की आँखें
जवाब देंहटाएंइन दिनों इस ओर नही आती
इस ओर है गुफ्फ़ अँधेरा
और जिस ओर है मीडिया की नज़र
उधर की चौंधियाती रौशनी में
कुछ नज़र नहीं आता
sahi kaha aapne sundar rachana
i read your feeling in aal poems .realy it's all touch the heart. thank you and rashmi ji
जवाब देंहटाएंin free time come in my blog
www.bebkoof.blogspot.com
मीडिया की आँखें
जवाब देंहटाएंइन दिनों इस ओर नही आती
इस ओर है गुफ्फ़ अँधेरा
और जिस ओर है मीडिया की नज़र
उधर की चौंधियाती रौशनी में
कुछ नज़र नहीं आता
its a satire on current media protocol and there approach towards gathering and presenting news...
... बेहद प्रभावशाली
जवाब देंहटाएं