यही सत्य है अगर कोई जान ले और समझ ले तो।
यथार्थ के धरातल पर रचित यह रचना जीवन की वास्तविकता को सामने लाती है ....@
yahi kahin vaastvikta chhipi hai.
कितना साम्य हैकैलेण्डरऔर जीवन मेंजहाँ रिश्ते महज पन्ने हैं.बहुत बढ़िया.
संवेदनशील रचना। बस ऐसे ही कहने का मन हुआ कि ---धर्म तो एक मिनट में बदला जा सकता है लेकिन संस्कृति बदलने में सदियां लगती है।
जीवन का कटु सत्य है....
कवि ने साम्य ढूंढ निकाला है सहजता से...!सत्य... सुन्दर!!!
जी हाँ जीवन यही है ... बेहतरीन
कैलेण्डर भी नया , फिर नए रिश्ते - फिर फडफडाते पन्ने
bas yahi saamy rah gaya hai. sunder abhivyakti.
जहाँ रिश्ते महज़ पन्ने हैं.....वाह बहुत खूब|
वाह अरुण जी ... सच कहा है रिश्ते भी बहुत जल्दी उतार देते हैं कुछ लोग मन से ... शायद यही तो जीवन है ...
समय जाने पर उतार देना समाज की नियति बन गयी है।
यही सत्य है अगर कोई जान ले और समझ ले तो।
जवाब देंहटाएंयथार्थ के धरातल पर रचित यह रचना जीवन की वास्तविकता को सामने लाती है ....@
जवाब देंहटाएंyahi kahin vaastvikta chhipi hai.
जवाब देंहटाएंकितना साम्य है
जवाब देंहटाएंकैलेण्डर
और जीवन में
जहाँ रिश्ते
महज पन्ने हैं.
बहुत बढ़िया.
संवेदनशील रचना। बस ऐसे ही कहने का मन हुआ कि ---
जवाब देंहटाएंधर्म तो एक मिनट में बदला जा सकता है लेकिन संस्कृति बदलने में सदियां लगती है।
जीवन का कटु सत्य है....
जवाब देंहटाएंकवि ने साम्य ढूंढ निकाला है सहजता से...!
जवाब देंहटाएंसत्य... सुन्दर!!!
जी हाँ जीवन यही है ...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
कैलेण्डर भी नया , फिर नए रिश्ते - फिर फडफडाते पन्ने
जवाब देंहटाएंbas yahi saamy rah gaya hai. sunder abhivyakti.
जवाब देंहटाएंजहाँ रिश्ते महज़ पन्ने हैं.....वाह बहुत खूब|
जवाब देंहटाएंवाह अरुण जी ... सच कहा है रिश्ते भी बहुत जल्दी उतार देते हैं कुछ लोग मन से ... शायद यही तो जीवन है ...
जवाब देंहटाएंसमय जाने पर उतार देना समाज की नियति बन गयी है।
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