मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

कैलेण्डर के पन्ने


पन्ने बदल जाते हैं 
कैलेण्डर के 
हर महीने और
आखिर में 
कैलेण्डर ही
बदल जाता है
उतार दिया जाता है 
दीवार से
मन के कोने से 

कितना साम्य है
कैलेण्डर

और जीवन में
जहाँ रिश्ते 

महज पन्ने हैं

13 टिप्‍पणियां:

  1. यही सत्य है अगर कोई जान ले और समझ ले तो।

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  2. यथार्थ के धरातल पर रचित यह रचना जीवन की वास्तविकता को सामने लाती है ....@

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  3. कितना साम्य है
    कैलेण्डर
    और जीवन में
    जहाँ रिश्ते
    महज पन्ने हैं.

    बहुत बढ़िया.

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  4. संवेदनशील रचना। बस ऐसे ही कहने का मन हुआ कि ---
    धर्म तो एक मिनट में बदला जा सकता है लेकिन संस्कृति बदलने में सदियां लगती है।

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  5. कवि ने साम्य ढूंढ निकाला है सहजता से...!
    सत्य... सुन्दर!!!

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  6. जी हाँ जीवन यही है ...
    बेहतरीन

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  7. कैलेण्डर भी नया , फिर नए रिश्ते - फिर फडफडाते पन्ने

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  8. जहाँ रिश्ते महज़ पन्ने हैं.....वाह बहुत खूब|

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  9. वाह अरुण जी ... सच कहा है रिश्ते भी बहुत जल्दी उतार देते हैं कुछ लोग मन से ... शायद यही तो जीवन है ...

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  10. समय जाने पर उतार देना समाज की नियति बन गयी है।

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