सोमवार, 8 अक्टूबर 2012

माँ और भादो



इस बरस भी
भादो नहीं बरसा
हथिया नक्षत्र
सूना ही रहा
नहीं बढाई बादलो ने
अपनी सूंढ़
और तालाब की मछलियाँ
नहीं खींच ले गया

न जाने माँ की
कैसी कैसी चिंताएं हैं
जो इस शोर में
दब कर रह जाती हैं
और इस बीच सरकार
एक दिन में ले लेती है
कई जरुरी निर्णय
जिसमे भादो के नहीं बरसने का
जिक्र नहीं होता

हथिया जो
नहीं बरसा है
कैसे जमेगा धान के पौधे में गर्भ
धान के पौधे जो नहीं
गम्हरायेंगे
कैसे लकदक लकदक फूटेंगे
माँ घुली जाती है इन चिंताओं में
उस नहीं फ़िक्र कि
बुढ़ापे के लिए संजोये पेंशन की रकम से
अब खेलेगा बाज़ार
मनचाहे तरीके से
क्योंकि अब भी पेंशन उन तक कहाँ पहुची है
जिनके लिए भादो का नहीं बरसना
बन सकता है
आत्महत्या का तात्कालिक कारण

माँ
भादो के हर इतवार को
रखती है सुरुज देवता का व्रत
और ऐसा रिश्ता है उसका
सुरुज देव से कि
जी भर कर कोसती है
भादो में चमकने के लिए
चटकते धान के खेतो को देख
माँ के चेहरे पर उभर आती है
झुर्रियों की कई और परतें
और कोई मेकप नहीं बना
जिसे छुपाने के लिए

माँ बहुत उदास होती है
भादो के नहीं बरसने पर
जबकि गीत तो सावन के बरसने का है
माँ फिल्मे नहीं देखती शायद

सोमवार, 1 अक्टूबर 2012

भूसा



भूसा हूं
मैं
अन्न को
सहेज
रखता हूं
और अंत में
कर दिया जाता हूं
बाहर

मेरा मोल भी
भूसा रह जाता है
मैं
ढेर सारे लोगों में
दिमाग में भर जाता हूं
जो नहीं होते हैं
इस दुनिया के काबिल तेज़

मैं
भूसा हूं