शनिवार, 31 अक्टूबर 2015

तलवार



जाति भी नहीं पूछता 
नहीं पूछता गली,
मोहल्ले का पता 
आदमी औरत में भी फर्क नहीं करता 
तलवार
एक ही धर्म होता है इसका 
उतार देता है गर्दन धड़ से 
या पेट से खींच लेता है अंतड़ियां बाहर 
बिना किसी भेदभाव के 

इधर भांज रहे हैं हम अब तरह तरह के तलवार, 
एक दूसरे पर 




बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

पूजा पंडाल से



मूर्तियां सजी हैं 
सजी हैं स्त्रियां
लड़कियां भी सजी हैं 
और सजे हैं बच्चे भी 

रंग अलग अलग 
और एक रंग सब में एक सा 
छोड़ दुखो के दैनिक रंग को 
उत्सव का रंग ओढ़ 
सजी हैं स्त्रियां, लड़कियां और बच्चे 
मूर्तियां स्थिर हैं 

बज़ रहे हैं ढोल ढाक 
नाच रहे हैं पुरुष 
नाच रही हैं स्त्रियां 
 नाच रहे हैं बच्चे 
आरती के धुएं से 
नहीं  होती दूषित हवा 

बिक रहे हैं 
तीर धनुष 
 बिक रहे हैं 
गदा तलवार 
बिक रही हैं 
जलेबियाँ गोल गोल 
गोल गोल घूम रहे हैं 
झूले, घोड़े , मोटर 
धरती की गति को भूल 
भूल दैनिक झंझावातों को 
खरीद रहे हैं लोग उत्सव 

मूर्तियां अर्थहीन हैं 
अर्थहीन हैं  धर्म की किताबें 
कोई अर्थ नहीं पताको के रंग का 
अर्थ है उत्सव के बहाने का 
पूजा के पंडालों में 

विसर्जित हो जाएँगी देवियाँ 
मूर्तियां प्रवाहित हो जाएँगी 
घर के छोटे मंदिरों में कैद हो जायेंगे धर्म 
रह जायेगा उत्सव अपनी  यादों में 
जिनके सहारे निकल जायेंगा एक और वर्ष  
फिर से सजने के लिए पूजा पंडाल उखाड़ लिए जायेंगे 

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2015

जीवन सुबह है

 उठ रहे हैं 
फुटपाथ से लोग 
जिनके घर नहीं हैं 
सुबह होने से पहले 
उनके लिए होता है भोर 

गाड़ियों का शोर 
थोड़ा बढ़ गया है 
बढ़ गई है 
चहलकदमियां 
जीवन की 
जो सोई थी देर से 
लेकिन जग गई है भोर 

होर्डिंग पर टंगी लड़की 
ओस में नहाकर भी 
ताज़ी नहीं लगती 
और ट्रैफिक लाइट को नहीं मानती 
लम्बी काले शीशो वाली गाड़ियां 


अखबार वाला साइकिल हांकता है 
जल्दी जल्दी 
जितनी तेज़ी से चलती है छापे की मशीन 
कहाँ कभी किसी ने बनाया उसे 
पहले पन्ने का आदमी 
जबकि पहला आदमी है वह 
जो सूंघता है हर रोज़ 
स्याही की गंध, खबरों की शक्ल में 

एक चुप्पी छा जाती है 
चिड़ियों के झुण्ड के बीच 
तभी म्युनिस्पलिटी की गाड़ी 
गड गड कर गुज़रती है 
मरे हुए जानवर को लेकर 

शहर के अस्पताल के आगे 
शुरू हो जाती है लगनी लम्बी कतार 
पोस्टमार्टम हाउस के आगे 
नहीं रोता है कोई छाती पीट पीट कर 
मुट्ठी में छुपा के रखता है सौ दो सौ रूपये 
मेहतर के लिए 
और इसी तरह होती है अमूमन हर सुबह।  

सोमवार, 5 अक्टूबर 2015

एक दिन जिसकी गिनती नहीं




हर दिन 
जीवन में गिनी ही जाए 
होता है क्या 
और यह जरुरी भी तो नहीं 

हर आदमी 
जीवन में रखता हो महत्व 
ऐसा भी तो नहीं होता 
और यह भी तो जरुरी नहीं 

यह भी तो हो सकता है कि 
जिसे आप गिनते हो आदमी में 
वह आदमी ही न हो 
या वह दिन जो आप बिता चुके हैं 
वह दिन न रहा हो 

कितने ही दिन भूखे गुज़र जाते हैं 
गुज़र जाते हैं प्यासे कितने ही दिन 
कितने ही दिन भय की छाया में ख़ाक हो जाते हैं 
तो कितने ही दिन मिटटी में दब का घुट जाते हैं 
और आदमी भी 

कल एक दिन गुज़र गया 
एक भीड़ ने एक आदमी को मार दिया 
एक आदमी ने एक लड़की तो तार तार कर दिया 
एक लड़की ने एक तितली को पकड़ तोड़ दिए उसके पंख 
एक तितली फूल से चुरा ली थोड़ी खुशबू 

यह थोड़ी खुशबू ही ज़िंदा रखे हुए है इस धरती को
और गिनती नहीं होती खुशबूओं की।