मूर्तियां सजी हैं
सजी हैं स्त्रियां
लड़कियां भी सजी हैं
और सजे हैं बच्चे भी
रंग अलग अलग
और एक रंग सब में एक सा
छोड़ दुखो के दैनिक रंग को
उत्सव का रंग ओढ़
सजी हैं स्त्रियां, लड़कियां और बच्चे
मूर्तियां स्थिर हैं
बज़ रहे हैं ढोल ढाक
नाच रहे हैं पुरुष
नाच रही हैं स्त्रियां
नाच रहे हैं बच्चे
आरती के धुएं से
नहीं होती दूषित हवा
बिक रहे हैं
तीर धनुष
बिक रहे हैं
गदा तलवार
बिक रही हैं
जलेबियाँ गोल गोल
गोल गोल घूम रहे हैं
झूले, घोड़े , मोटर
धरती की गति को भूल
भूल दैनिक झंझावातों को
खरीद रहे हैं लोग उत्सव
मूर्तियां अर्थहीन हैं
अर्थहीन हैं धर्म की किताबें
कोई अर्थ नहीं पताको के रंग का
अर्थ है उत्सव के बहाने का
पूजा के पंडालों में
विसर्जित हो जाएँगी देवियाँ
मूर्तियां प्रवाहित हो जाएँगी
घर के छोटे मंदिरों में कैद हो जायेंगे धर्म
रह जायेगा उत्सव अपनी यादों में
जिनके सहारे निकल जायेंगा एक और वर्ष
फिर से सजने के लिए पूजा पंडाल उखाड़ लिए जायेंगे
ati sundar aur bhawukta udelati kavy prastuti.... badhai!
जवाब देंहटाएंshukriya
हटाएंपंडालों के साथ साथ
जवाब देंहटाएंपता नहीं कितना कुछ
उखड़ेगा किसे पता ?
बहुत सुंदर !
लेखनी का जादू है Seetamni. blogspot. in
जवाब देंहटाएंजीवन चक्र ऐसे ही चलता रहेगा.
जवाब देंहटाएंसुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....