जाति भी नहीं पूछता
नहीं पूछता गली,
मोहल्ले का पता
आदमी औरत में भी फर्क नहीं करता
तलवार
एक ही धर्म होता है इसका
उतार देता है गर्दन धड़ से
या पेट से खींच लेता है अंतड़ियां बाहर
बिना किसी भेदभाव के
इधर भांज रहे हैं हम अब तरह तरह के तलवार,
एक दूसरे पर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (01-11-2015) को "ज़िन्दगी दुश्वार लेकिन प्यार कर" (चर्चा अंक-2147) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत खूब। अच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब।
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब।
जवाब देंहटाएंगागर में सागर - गहरे भाव लिए समेटे प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंउम्दा प्रस्तुति, बधाई.
जवाब देंहटाएंप्यार और भाईचारा ही इस तलवार की धार को बेअसर कर सकता है.
जवाब देंहटाएंसार्थक सन्देश देती कविता.
सुन्दर पोस्ट....
जवाब देंहटाएंआप को दीपावली की बहुत बहुत शुभकामनाएं...
नयी पोस्ट@आओ देखें मुहब्बत का सपना(एक प्यार भरा नगमा)
और मानवता मर रही है ।
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