शनिवार, 9 मई 2020

आप क्या दौड़ेंगे सतीश सक्सेना जी !

(देश में स्वास्थ्य को लेकर बाजार तैयार किया जा रहा है . महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक नियमित रूप से मैराथन दौड़ आयोजित हो रहे हैं . युवा से लेकर बुज़ुर्ग तक इस बाजार का हिस्सा बन चुके हैं . स्वस्थ रहना एक और बात है और भीड़ का हिस्सा बनना एक और बात . खैर . इस लॉक डाउन में जिस तरह मजदूरों की घर वापसी हो रही है उसने व्यथित किया है . इनदोनो भावनाओं के घालमेल से उपजी है यह कविता . अपने मैराथन रनर मित्र और ब्लॉगर श्री सतीश सक्सेना जी से क्षमा सहित . ) 


सतीश सक्सेना जी
जानता हूँ आप दौड़ते हैं मैराथन
दस किलोमीटर , बीस किलोमीटर
चालीस किलोमीटर
लेकिन बता दूं कि
जो दौड़
दौड़ रहा है असोकबा, राकेसबा, अब्दुलबा या रहमनवा
वह न आप दौड़ सकते हैं
न आपके वे हजारों साथी
मेट्रो शहरों के हर हफ्ते होने वाले तमाम इवेंट्स में .

लगे हाथ पाठकों को बता दूं कि
मैं कोई दावा नहीं कर रहा कि
सतीश  सक्सेना कोई काल्पनिक नाम हैं
या काल्पनिक चरित्र है अशोक, राकेश, अब्दुल या रहमान ही .
मेट्रो  शहरों में होने वाले इवेंट्स वाले स्थान भी काल्पनिक नहीं हैं
न ही काल्पनिक वह दौड़ जो दौड़ रहे हैं अशोक , राकेश , अब्दुल या रहमान .
और इनका होना कोई संयोग भी नहीं है
बल्कि वह वास्तविक चक्र है जिनसे ये कभी निकल नहीं पाते और
जब स्थितियां सामान्य होती हैं
हमारे आसपास मौजूद होते हुए भी
हम भांप नहीं पाते हैं इनकी उपस्थिति .

ये जो दौड़ रहे हैं पैदल अपने गाँवों की ओर
ये वहीँ हैं जो बनाते हैं घर
चलाते हैं कारखाने
सिलते हैं कपडे
साफ़ करते हैं गाड़ियां
बुहारते हैं सड़कें
चमकाते हैं माल और थियेटर
आप नाम तो लीजिये
हर जगह मौजूद होते हैं ये
फिर भी आज दौड़ रहे हैं वापिस
अपने गाँव की ओर


यह दौड़ पहले शुरू होती थी गाँव से
और रूकती थी हजार दो हजार किलोमीटर जाकर
बसों, रेलों और पैदल की यह दौड़ अनवरत जारी थी
और यह पहली बार हो रहा है कि
दौड़ उलटी हो रही है
जैसे कई बार नदी बहने लगती है अपनी ही धारा के विपरीत
विषम परिस्थितयों में .

आज इस उलटी दौड़ के लिए जब उपस्थित नहीं है कोई साधन
हौसला देखिये कि ये दौड़ पड़े हैं पैदल ही
कोई हजार किलोमीटर का लक्ष्य लिए है
तो किसी का लक्ष्य डेढ़ हजार किलोमीटर है
सतीश सक्सेना जी एक बार गुना तो कीजिये कि
कितने फुल मैराथन समा जायेगे इस एक दौड़ में .

दौड़ना सबसे आदिम क्रिया है
जो भूल चूका था आदमी स्वयं ही
जो भूल चुकी थी सभ्यता
कंप्यूटर भी सोच नहीं सकता कि
कोई आदमी इस तरह आदम और असभ्य हो सकता है कि
हजार किलोमीटर पैदल दौड़ने का हौसला कर ले
जबकि विज्ञान और तकनीक ने जुटा दिए हैं
आधुनिक से आधुनिकतम साधन
क्या मानव सभ्यता फिर से ऋणी नहीं हो गई इनका
जो उठ चले हैं गाँवों की ओर पैदल ही धता बता कर
आधुनिक साधनों को . 

सतीश सक्सेना जी
देखा है मैंने कि जब आप दौड़ रहे होते हैं  मैराथन
जगह जगह पर खड़े होते हैं लोग
वे देखते हैं कि कितनी दूरी मापी है आपने
कितने समय में
समय और दूरी के इस अनुपात को आप गति कहते हैं
लेकिन ये जो  महानगरों को छोड़ कर जा रहे हैं गाँवों की ओर
इनकी गति की गणना क्या  संभव हो सकती है
क्योंकि महानगरों से जितनी दूर जायेंगे
विकास के गुणक उतनी ही तेजी से घटेंगे
शायद कोई कंप्यूटर इस उलटी गति की गणना करने में सक्षम नहीं
क्योंकि सभ्यताओं के विकास की नीव में पड़ा है इनका श्रम .

पैदल चलने वालों का एक जत्था चल पड़ा है
सूदूर दक्षिण से पूरब की तरफ
एक जत्था सुदूर पश्चिम से चल पड़ा है
उत्तर की तरफ,
उत्तर से कई जत्थे कूच कर दिए हैं  मध्य की तरफ
ये आपके  रनर्स कम्युनिटी की तरह नहीं हैं प्रतिस्पर्धी
इनका बस एक ही लक्ष्य है
जिसे कहते हैं घर
शायद घर ने ही आदिमों को पहली बार बनाया था सामाजिक
समाज की पहली इकाई ही कहते हैं न घर को परिवार को
और जब दुनिया घरों में बंद है
बंद है आपकी दौड़ , आपके इवेंट्स
ये सड़कों को माप रहे हैं 
और आप देख ही रहे होंगे कि इनके कदम
चालीस पचास किलोमीटर के बाद भी बिलकुल नहीं थके हैं
ये हांफ नहीं रहे हैं सतीश सक्सेना जी
बल्कि हांफ रही है सत्ता .


जब रोटी से बड़ी हो जाती है
मिटटी की जिजीविषा
दुनिया की हर दौड़ छोटी पड जाती है
और यदि आपको अपना नाम यहाँ पसंद नहीं  तो
सतीश सक्सेना जी क्षमा सहित  लीजिये
लिख देता हूँ अपना ही नाम -
तुम क्या दौडोगे अरुण चन्द्र रॉय
जो दौड़ रहा है तुम्हारे गाँव का असोकवा, राकेसवा, अब्दुलवा या रहमनवा ! 

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7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत प्रभावी रचना ... सच की बयानी है ...

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  2. बहुत ही सुंदर, आंखें भी नम हो गईं। दिल को छू गई ये रचना। अदभुत

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