1.
यह युद्ध काल नहीं है
आसमान में नहीं उड़ रहे
बम वर्षक विमान
या फिर सैनिक ही लड़ रहे
सीमाओं पर
फिर भी भयभीत हैं हम
थमे हुए हैं कदम
2.
सूरज निकलता है पूरब से
लेकिन दिन नहीं बदलता
हमारी दिनचर्या से
हटा ली गई है व्यस्तता
और रुक गया है चक्का
3.
इन दिनों ईश्वर के चहरों की चमक
पड़ गई ही फीकी
अचानक बदल गए हैं
प्रार्थनाओं के शब्द
भय ने किया हमें स्तब्ध
4.
मनुष्य और मनुष्य के बीच
पहले से ही तरह तरह की दूरियां
वर्ग की, संघर्ष की
अब इसमें जुड़ गई है
एक और दूरी भय की।
पहले से ही तरह तरह की दूरियां
वर्ग की, संघर्ष की
अब इसमें जुड़ गई है
एक और दूरी भय की।
जवाब देंहटाएंसमसामयिक यथार्थ का चित्रण करती रचंना!
धन्यवाद रेखा जी।
हटाएंसटीक। कुछ लोग ईश्वर की जगह ले चुके हैं काम जारी है।
जवाब देंहटाएंआपके पढ़ने से रचना मुकम्मल हो जाती है।
हटाएंयथार्थ
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सेंगर जी।
हटाएंबड़ी विषम परिस्थिति है !
जवाब देंहटाएंसही चित्रण !!
सार्थक क्षणिकाएँ।
जवाब देंहटाएंसच, कोरोना के भय से सभी स्तब्ध हैं. सटीक चित्रण.
जवाब देंहटाएंसच कहा अरुण जी . भय जुड़ गया है लेेकिन आप देख रहे हैं न कि कुछ लोग भय से ऊपर होकर भयभीतों के मन में भय के साथ कई आशंकाएं और सन्देह भी भरे जा रहे हैं . एक समर्थ सामयिक रचना .
जवाब देंहटाएंये वक्त भी गुजर जाएगा, भले ही घाव जरूर गहरे होंगे
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी सामयिक चिंतन प्रस्तुति
सामयिक प्रस्तुति
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