यह उन दिनों की बात है जब समाज में धर्म के नाम पर खुल कर गोलबंदी होने लगी थी। वॉट्सएप के जरिए लोग खेमे में बांटने और बंटने लगे थे।
मेरे कस्बे के कुछ लोगों ने निर्णय लिया कि वे अपने धर्म के लोगों से सामान खरीदेंगे, मजदूरी कराएंगे। यहां तक कि दर्जी, नाई, मोटर मैकेनिक भी अपने , दर्र्मधर्म विशेष का ढूंढने लगे।
शहर भर घूम घूम कर सूची बना ली गई। विभिन्न वॉट्सएप समूहों के जरिए यह सूची मिनट भर में एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंच गई। इतनी जल्दी तो जंगल की आग भी नहीं फैलती है।
कुछ दिनों में इसका फर्क दिखना भी शुरू हो गया। बाकी सब तो ठीक चल रहा था लेकिन धर्म विशेष का नाई इस कस्बे में एक ही था।
उसकी दुकान पर भीड़ रहने लगी थी। पहले पहल तो उसे बड़ा मज़ा आ रहा था । वह दुकान जल्दी खोलने लगा था। भीड़ इतनी होती कि दुकान बंद करते करते उसे रात हो जाती। घर देर से पहुंचता तो बीबी बच्चे नाराज़ मिलते। घर में कलह रहने लगा। वह तनाव में रहने लगा। उधर दुकान पर भीड़ की वजह से वह चिड़चिड़ा रहने लगा था।
वह अपने दुकान पर एक और कारीगर रखने के बारे ने सोचने लगा। लेकिन उसे अपने धर्म विशेष का कारीगर मिल ही नहीं रहा था। तीन चार महीने में ही उसकी हालत खराब होने लगी।
एक दिन उसने दूसरे धर्म के लड़के को समझा बुझा कर काम पर रख लिया। उसे सख्त हिदायत दी कि वह किसी से भी अपने धर्म के बारे में न बताए। एकाध महीना तो ठीक चला। उधर शहर में इस तरह के बंटवारे की वजह से समरसता खत्म हो रही थी। तनाव बढ़ता जा रहा था।
एक रात वह नाई अपनी दुकान बंद करके घर लौट रहा था। साथ में उसके कारीगर भी था। एक मोड़ पर आकर नाई और उसका कारीगर अपने अपने मोहल्ले की तरफ चल दिए कि सामने शहर के बंटवारे के ठेकेदारों ने देख लिया और नाई की पोल खुल गई।
अगले दिन वह नाई पास के नाले के किनारे मृत पाया गया।
उस कस्बे में उस धर्म विशेष का अकेला वह नाई भी अब नहीं रहा। हारकर लोग दूसरे धर्म के नाई के पास धीरे धीरे जाने लगे।
सार्थक लघुकथा... सार्थक संदेश के साथ.
जवाब देंहटाएंसादर
और लघुकथा के बहाने आप भी अपने उसी हिन्दू मुसलमान वाले एंगल को फेसबुक से ब्लॉग तक खींच लाए हैं। बहुत ही दोहरा लेखन है ये और ये भी उसी समरसता को ख़त्म करने जैसा ही है इस पोस्ट से जिसे आपने लघुकथा का नाम दिया है इससे कौनसी समरसता बढ़ रही है। बिलकुल नहीं पसंद आई मुझे ये आपकी बात
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया अभिव्यक्ति ....
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