प्रस्तुत है लुईस ग्लूक की कविता "अक्तूबर" शृंखला की पहली कविता का अनुवाद
अक्टूबर : लुईस ग्लूक
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क्या आ गई है फिर से सर्दी ,
क्या फिर से हो रही है ठंढ
क्या वह फिर से धंस गया है बर्फ में
क्या वह ठीक नहीं हुआ
क्या बसंत के बीज़ रोपे नहीं गए
क्या रात का अंत नहीं हुआ
क्या पिघलते बर्फ से बंद नहीं हुआ
छोटी नदियों को लबालब भरना !
क्या मेरा शरीर बचा नहीं
क्या मैं नहीं अब सुरक्षित?
क्या मेरे ज़ख्मों के निशान
हो गए हैं अदृश्य, नहीं दे रहे किसी को दिखाई?
आतंक और हाड़ कँपाती ठंड
क्या खत्म नहीं होंगे
क्या घर के पीछे का बगीचा
तैयार नहीं होगा, क्या रोपे नहीं जाएंगे इसमें पौधे !
मुझे स्मरण है कैसा महसूस कर रही थी धरती,
लाल और गहन रोष
ऐसे में क्या
समानान्तर नहीं लगाए गए थे बीज़
क्या लताएँ दक्षिणी दीवारों पर नहीं चढ़ी थी !
अब मैं फिक्र नहीं करती
कि कैसा लगता है किसी को
जब मुझे चुप कराया गया था
कैसा लगा था मुझे, बेमानी है अब इसका वर्णन करना
जिसे बदला नहीं जा सकता हो, उसके बारे में जानना कैसा लगता है ?
क्या रात का अंत नहीं होगा,
जब गर्भ में रोपा गया बीज़,
क्या धरती नहीं थी सुरक्षित !
जब धरती के लिए बहुत जरूरी था
तब क्या हमने नहीं रोपे बीज !
जो बीज़ रोपे गए, क्या उनमें फल लगे?
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मूल कविता
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October :Louise Glück
Is it winter again, is it cold again,
didn’t Frank just slip on the ice,
didn’t he heal, weren’t the spring seeds planted
didn’t the night end,
didn’t the melting ice
flood the narrow gutters
wasn’t my body
rescued, wasn’t it safe
didn’t the scar form, invisible
above the injury
terror and cold,
didn’t they just end, wasn’t the back garden
harrowed and planted–
I remember how the earth felt, red and dense,
in stiff rows, weren’t the seeds planted,
didn’t vines climb the south wall
I can’t hear your voice
for the wind’s cries, whistling over the bare ground
I no longer care
what sound it makes
when I was silenced, when did it first seem
pointless to describe that sound
what it sounds like can’t change what it is–
didn’t the night end, wasn’t the earth
safe when it was planted
didn’t we plant the seeds,
weren’t we necessary to the earth,
the vines, were they harvested?
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सुंदर अनुवाद! साधुवाद!
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सादर!--ब्रजेन्द्रनाथ