गुरुवार, 29 अक्तूबर 2020

रेल की खिड़की से


धरती

भाग रही है पीछे

पेड़ पहाड़ सबके साथ

भ्रम ही तो है यह। 


पसरा हुआ अंधेरा 

कर रहा है संवाद

स्मृतियों में कौंध रहा है

गाव, खेत खलिहान

उदास दालान 

और सुख की इच्छा में 

हमारा भागना 

एक और भ्रम है। 


दुनिया भर की रोशनी 

रेल के दोनों किनारों पर 

जला देने से भी

छूटते हुए गांवों से उपजा अंधेरा 

नहीं हो सकता दूर। 


खिड़की बंद कर देने से 

बाहर की हवा भीतर नहीं आएगी

छूटने की पीड़ा हो जाएगी हल्की 

यह एक और भ्रम है।

7 टिप्‍पणियां:

  1. खिड़की बंद कर देने से

    बाहर की हवा भीतर नहीं आएगी

    छूटने की पीड़ा हो जाएगी हल्की

    यह एक और भ्रम है।,,,,,,।बहुत सुंदर एवं भावपूर्ण रचना ।

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