शनिवार, 24 अप्रैल 2021

यह शोक का समय है

यह श्रद्धांजलि लिखने का
समय नहीं
यह है शोक का समय। 

नागरिक तो पहले मरे हैं
उनसे पहले मरी है
नैतिकता और मानवता
अस्पतालों में
दवाई की दुकानों पर 
गोदामों और 
धनकुबेरों के तहखानों में। 

कौन कहता है कि 
सांसे नहीं मिलने से मरे हैं लोग
वास्तव में मरी है
संवेदना सत्ता की, अधिकारियों की
या कहिए सम्पूर्ण प्रणाली की
नीतियों की और नियंताओं की। 

यह व्यक्तिगत नहीं 
सामूहिक शोक का समय है
अशेष संवेदनाओं के आत्महत्या का समय है यह। 

15 टिप्‍पणियां:

  1. सच में , ऐसे समय भी लोग स्वार्थ नहीं भूलते । आज साँसों की भी कालाबाज़ारी कर रहे हैं ।मन क्षुब्ध है । झकझोरने वाली रचना ।

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  2. बहुत बहुत शुक्रिया संगीता जी। बहुत भयावह दौर से गुजर रहा है देश।

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  3. आपकी लिखी कोई रचना सोमवार 26 अप्रैल 2021 को साझा की गई है ,
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  4. कटु यथार्थ उजागर करती अभिव्यक्ति ।

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  5. कडवा मगर सत्य । ऐसे समय में भी लोग कैसे इतने स्वार्थी हो सकते है ?

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  6. आदरणीय सर, आपकी यह रचना बहुत ही करुण है और एक कटु सत्य को उजागर करती है । स्वार्थी और भ्रष्टाचारी नेता इस संकट काल में भी अपना पेट भर रहे हैं और आम -आदमी आज भी वही पीड़ा भोग रहा है । हार्दिक आभार इस समसामयिक रचना के लिए ।

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  7. मार्मिक सत्य को उकेरती संवेदना शील रचना! निशब्द हूँ अरुण जी🙏

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  8. जब व्यवस्था ही कोरोना ग्रसित हो तो नागरिकों की मौत का ताण्डव ही देखने को मिलेगा! आपकी अभिव्ययक्ति उचित और सामयिक है, जो एक लाचारी का बोध कराती है!

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