शनिवार, 29 मई 2021

महामारी

अरुण चन्द्र रॉय की कविता - महामारी

1.

नहीं जो आई होती महामारी

 विश्वास करना कठिन होता कि

दोहराता है इतिहास 

स्वयं को। 


2.

नहीं जो आती होती महामारी

मृत्यु आती है करके मुनादी

कहां समझ पाते हम। 


3.

महामारी का कीजिए 

धन्यवाद 

जिसने बताया कि

सीमाएं हैं 

ज्ञान की, विज्ञान की

धन, वैभव, पद एवं प्रतिष्ठा  की

मनुष्यता है इन सबसे ऊपर। 


4.

महामारी का आभार 

यदि हम त्याग सकें 

अपना अहंकार। 

अंधेरा है फिर उजाला दूर नहीं

 रात हुई है तो सवेरा दूर नहीं 

अंधेरा है फिर उजाला दूर नहीं 

थक कर रुक गए तो बात अलग 

चलते रहे तो समझो मंजिल दूर नहीं। 



मुश्किल में बेशक है मानव आज 

ठप्प पड़े हैं सब काम काज 

हार कर बैठ जाए तो बात अलग 

गिरकर उठ गया तो संभालना दूर नहीं 

अंधेरा है फिर उजाला दूर नहीं 


खो दिए किसी ने मां किसी ने बाप

लगी किसी की नजर किसी का शाप 

दुनिया का अंत इसे समझ लो बात अलग 

वरना समय का पलटना दूर नहीं 

अंधेरा है फिर उजाला दूर नहीं


ज़िन्दगी के दिन सीमित हैं सबने कहा 

गीता रामायण पुराण सबमें यह लिखा 

पंचतत्व का मोह मिटा नहीं तो बात अलग 

मृत्यु के भय का जाना अब दूर नहीं 

अंधेरा है फिर उजाला दूर नहीं। 










गुरुवार, 27 मई 2021

सब ठीक है

 बहुत दिनों बाद मिले 

बीज बेचने वाले बाबा 

पूछा कि कैसे रहे पिछले दिन 

उन्होंने कहा सब ठीक है, 

लेकिन कहां है सब ठीक?


पेड़ के नीचे बैठ कर 

पुराने कपड़ों को ठीक करने वाले बाबा 

बहुत दिनों बाद दिखे 

थके हुए कदम और उदासी आंखों में भर कर 

वे उसी पेड़ के नीचे खाली बैठे मिले।

पूछने पर बताया कि 

वे भी ठीक है,

लेकिन कहां है सब ठीक? 


वो चौंक पर बैठता है एक चाबी बनाने वाला 

वह भी कहां दिखाई दिया साल भर से 

उसका बोर्ड अब भी टंगा था 

फोन मिलाया तो उसने भी कहा 

सब ठीक है 

लेकिन कहां है सब ठीक?


ऐसे ही ज़िन्दगी के आसपास 

रोज़ दिखने वाले जब नहीं दिख रहे 

या कमजोर या उदास दिख रहे हैं 

फिर भी कह रहे हैं सब ठीक है 

तो मत समझिए कि सब ठीक है। 


हां 

जब सब ठीक नहीं है 

तब भी सब ठीक कहना 

और कुछ नहीं बल्कि है

 आदमी के भीतर बसी 

जिजीविषा और आशा 

यही उसे खड़ा करता है 

हर बार गिरने पर 

संबल देता है 

लड़खड़ाने पर। 


ठीक है कि अभी 

सब ठीक नहीं लेकिन 

कल होगा सब ठीक ।











रविवार, 23 मई 2021

वापसी डाक से

 प्रिय

तुम्हारे भीतर जो

बसी है 

उदासियां, पीड़ा

दुख  और अकेलापन

स्पीड पोस्ट कर दो मुझे

मैं उन्हें सहेज रखूंगा 

अपने भीतर किसी उपहार की तरह

वापसी डाक से भेज दूंगा 

थोड़ी सी ताजी रोशनी,

खुशी के कुछ पल

और ढेर सारी दुआएं

एक डिब्बी में भर कर। 


यहां बताना जरूरी है कि 

इस भयावह और अवसाद भरे दौर में 

अस्पतालों के साथ साथ 

खुले हैं डाकखाने भी। 


- अरुण चन्द्र रॉय

मंगलवार, 11 मई 2021

कुछ दिनों के लिए

 अरुण चन्द्र रॉय की कविता - कुछ दिनों के लिए 

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मुद्रित कीजिए

अखबारों को श्वेत श्याम में 

संपादकीय पृष्ठ को कर दीजिए

पूरी तरह काला

स्थगित कर दीजिए 

खेल पृष्ठ

आर्थिक पृष्ठ पर 

कंपनियों के आंकड़े नहीं बल्कि

दीजिए आंकड़े

छूटे हुए काम वाले घरों के रसोई का 

बंद कर दीजिए रंगीन विज्ञापन भी अखबारों में

कुछ दिनों के लिए। 


कुछ दिनों के लिए

टीवी पर बंद कर दीजिए

रंगीन प्रसारण

ब्रेकिंग न्यूज के साथ चलने वाले 

सनसनीखेज संगीत प्रभाव को

कर दीजिए म्यूट

पैनलों की बहसों को कर दीजिए

स्थगित

प्राणवायु के बिना छटपटाती जनता का

सजीव प्रसारण पर भी 

लगा दीजिए रोक।


यदि छापना ही है

प्रसारित करना ही है 

तो कीजिए 

संविधान की प्रस्तावना

बार बार 

बार बार 

बार बार

कुछ दिनों के लिए। 

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शनिवार, 1 मई 2021

फोनबुक से वार्तालाप

 अरुण चन्द्र रॉय की कविता - फोनबुक से वार्तालाप

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महामारी से भयभीत होकर

इन दिनों मैं अपने फोन के कॉन्टैक्ट लिस्ट को 

खंगालता हूं बार बार 

करता हूं इससे वार्तालाप

सोचता हूं यदि गिर गया ऑक्सीजन लेवल मेरा तो 

किसे फोन करेगी मेरी पत्नी या बच्चे 

कौन दौड़ा आएगा सबसे पहले 

उठा ले जाएगा मुझे किसी अस्पताल के लिए 

कौन बच्चों को समझाएगा मेरी पत्नी या बच्चों को 

ढांढस देगा उन्हें 


कौन फोन नहीं उठाएगा जैसे

 मैं नहीं उठाता हूं फोन कई बार 

 देकर दफ्तर में व्यस्त रहने का हवाला 

कौन डर जायेगा कि कहीं मांग न लूं उधार 

इस महामारी में उधारी देना कितना जोखिम भरा है न 

जब देश की पूरी अर्थव्यवस्था उधारी में जा रही हो धंसी।


मैं अपने फोनबुक को ऊपर से नीचे तक 

करता हूं बार बार स्क्रॉल 

एक एक नंबर पर रुकता हूं सोचता हूं  

फिर याद आते हैं मुझे उनके साथ किया हुआ 

अच्छा बुरा व्यवहार  

अच्छे व्यवहार पर मुस्कुराता हूं 

और बुरे व्यवहार पर जतात हूं पश्चाताप 

खुद से करता हूं वादा कि यदि गुजर गया 

महामारी का यह बुरा दौर तो 

बदल लूंगा अपना व्यवहार 

हर फोन नंबर पर बदलता है 

मेरे चेहरे का रंग और हावभाव । 


यदि कोई अनहोनी घटित हो जाती है तो 

क्या चार कंधे मिल जाएगा मुझे 

ऐसे चार नाम ढूंढते ढूंढते मुझे याद आते है अपने रिश्तेदार 

जिनके शादी व्याह, मरनी हरनी में भी 

 शामिल नहीं हो पाया था मैं 

भेज दिया था नेग कूरियर से 

वे लोग भी याद आ रहे हैं जिन्हें टरका देता था मैं

मदद की मांग पर 

जबकि सोच रहा हूं कि यदि ये लोग पहुंच जाएं 

सुनकर मेरे नहीं रहने की खबर तो 

अन्त्येष्टि से क्रियाकर्म तक नहीं होगी 

मेरी पत्नी या बच्चों को कोई दिक्कत।


मन ही मन मैं सूची बनाने लगता हूं कि 

किस से मांगनी है माफी किसी अनजानी गलती के लिए

किसको कहना है धन्यवाद किसी छोटे बड़े उपकार के लिए 

किसको कह के जाना है कि बच्चों को रखे ध्यान थोड़ा 

और अंत में मैं अपनी पत्नी को भेजता हूं एक मैसेज -

" यह दुनिया तब भी थी, जब नहीं थे हम 

यह दुनिया तब भी रहेगी, जब नहीं रहेंगे हम 

हमारे होने या न होने से नहीं रुकता है 

पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूमना  

सूर्य का उदय और अस्त 

बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, हेमंत और शिशिर ऋतुओं का चक्र 

फूलों का मुरझाना और फिर से खिलना 

वृक्षों पर पतझड़ और नव पल्लव का आना।"


और गहरी सांस लेकर में बंद कर देता हूं 

अपने फोनबुक से वार्तालाप।