दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का बज़ट पेश होने के बाद चैन की सांस रहे थे, देश के दादा. घर का बज़ट तो संभाला जाता नहीं है लोगों से, और मीन मेख निकलते हैं, देश के बज़ट में, बुदबुदा रहे थे .
शहर और गाँव के बीच में जब दूरी रहती है तो लोग चीखते हैं, चिल्लाते हैं. सरकार को असफल कहते हैं. और जब इस दूरी को कम करने की बात चल रही है तो लोगो को समस्या हो रही है. शहर में घर लेना हो तो कर्जे पर लो, टीवी,कार लेना हो कर्जे पर लो. सब उपलब्ध है. यदि ई एम आई नहीं चुका पा रहे हो तो फिर पर्सनल लोन ले लो. गाँव में भी सरकार यही करने वाली है. सत्तर हज़ार गाँव में इस साल बैंक खुलने वाले हैं. सड़क नहीं है तो क्या हुआ. अस्पताल नहीं है तो क्या हुआ. कर्जा तो मिलेगा किसानो को. किसानो को कर्जा कैसे मिलता है ये भी सबको पता है. अब कर्जा लेके खेती करो. फसल हुई तो सरकार लेने नहीं आएगी. बिचौलिए को औने पौने दाम में बेचो. लागत आ जाये तो खुशनसीब नहीं आये तो किसान कार्ड से फिर लोन ले लो. दो तीन साल में आठ दस फसल चक्र में ऐसा चक्का फंसेगा जैसे कि शहरी मध्य वर्ग का फंसा हुआ है. कोई रास्ता निकले तो ठीक है, नहीं तो खेत बेच हो नए साहूकार के हाथो. नहीं तो आत्महत्या कर लो. शहर में तो ये आम हो गया है. अब गाँव देहात में भी होगा. शहर और गाँव के बीच खाई ऐसे ही कम होगी.
इस बज़ट में कई और उपय किये गए हैं. सस्ते मकान बनेंगे. शहर में सस्ते मकान का मतलब अफोर्डेबल होम से है. अफोर्डेबल यानी २०-२५ लाख का घर. अब सरकार बिल्डर को विदेश से लोन लेने की छूट दे रही है. विदेश से पैसा लो और सस्ते मकान बनाओ. अब जब देश का सारा काला धन विदेश में है और देश की जानता जोर दे रही है विदेश के काला धन वापिस लेन के लिए तो कोई न कोई उपाय करना ही होगा. बिल्डर को विदेश से लोन दे दो. इस से काला धन वापिस देश में आ जायेगा और गोरा हो जायेगा. ये बिल्डर किसानो के सस्ते जमीन लेंगे और सस्ते मकान बनायेंगे. खेती के लिए ज़मीन कम ही हो जाएगी तो क्या होगा, विदेश से हम आयात कर ही लेंगे. छोटे किसान क्या कमाते हैं जो उन्हें खेती में रहना है. बेहतर है नौकरी कर ले. आत्मनिर्भरता तो दुश्मन है नई उदारवादी अर्थव्यस्था में. सरकार के इस उपाय से भी शहर और गाँव के बीच की खाई दूर होगी.
दादा ने बढ़िया व्यवस्था कर दी है. अब देखना है गाँव कब तक शहर के जंजाल से बचे रहते हैं.
शहर और गाँव के बीच में जब दूरी रहती है तो लोग चीखते हैं, चिल्लाते हैं. सरकार को असफल कहते हैं. और जब इस दूरी को कम करने की बात चल रही है तो लोगो को समस्या हो रही है. शहर में घर लेना हो तो कर्जे पर लो, टीवी,कार लेना हो कर्जे पर लो. सब उपलब्ध है. यदि ई एम आई नहीं चुका पा रहे हो तो फिर पर्सनल लोन ले लो. गाँव में भी सरकार यही करने वाली है. सत्तर हज़ार गाँव में इस साल बैंक खुलने वाले हैं. सड़क नहीं है तो क्या हुआ. अस्पताल नहीं है तो क्या हुआ. कर्जा तो मिलेगा किसानो को. किसानो को कर्जा कैसे मिलता है ये भी सबको पता है. अब कर्जा लेके खेती करो. फसल हुई तो सरकार लेने नहीं आएगी. बिचौलिए को औने पौने दाम में बेचो. लागत आ जाये तो खुशनसीब नहीं आये तो किसान कार्ड से फिर लोन ले लो. दो तीन साल में आठ दस फसल चक्र में ऐसा चक्का फंसेगा जैसे कि शहरी मध्य वर्ग का फंसा हुआ है. कोई रास्ता निकले तो ठीक है, नहीं तो खेत बेच हो नए साहूकार के हाथो. नहीं तो आत्महत्या कर लो. शहर में तो ये आम हो गया है. अब गाँव देहात में भी होगा. शहर और गाँव के बीच खाई ऐसे ही कम होगी.
इस बज़ट में कई और उपय किये गए हैं. सस्ते मकान बनेंगे. शहर में सस्ते मकान का मतलब अफोर्डेबल होम से है. अफोर्डेबल यानी २०-२५ लाख का घर. अब सरकार बिल्डर को विदेश से लोन लेने की छूट दे रही है. विदेश से पैसा लो और सस्ते मकान बनाओ. अब जब देश का सारा काला धन विदेश में है और देश की जानता जोर दे रही है विदेश के काला धन वापिस लेन के लिए तो कोई न कोई उपाय करना ही होगा. बिल्डर को विदेश से लोन दे दो. इस से काला धन वापिस देश में आ जायेगा और गोरा हो जायेगा. ये बिल्डर किसानो के सस्ते जमीन लेंगे और सस्ते मकान बनायेंगे. खेती के लिए ज़मीन कम ही हो जाएगी तो क्या होगा, विदेश से हम आयात कर ही लेंगे. छोटे किसान क्या कमाते हैं जो उन्हें खेती में रहना है. बेहतर है नौकरी कर ले. आत्मनिर्भरता तो दुश्मन है नई उदारवादी अर्थव्यस्था में. सरकार के इस उपाय से भी शहर और गाँव के बीच की खाई दूर होगी.
दादा ने बढ़िया व्यवस्था कर दी है. अब देखना है गाँव कब तक शहर के जंजाल से बचे रहते हैं.
गाँव कब तक शहर के जंजाल से बचे रहते हैं.
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा है आपने .. सार्थक व सटीक लेखन ...आभार ।
सरकार जो भी करे ..
जवाब देंहटाएंझेलना तो पडेगा ही ..
मजबूरी जो है !!
एक समस्या को दबाने के लिये दूसरी समस्या का सहारा, वाह..
जवाब देंहटाएंसही है ..सरकार जो करे सब सही.
जवाब देंहटाएंअरुण जी आपने एक सार्थक चर्चा की है।
जवाब देंहटाएंकिंतु सुना है शहर में मकान खरीदने पर टैक्स भी काफ़ी लगेगा। शायद पचास लाख के मकान पर बीस लाख।
नमक छिड़किये घाव पर, बजट रहा बरसाय ।
जवाब देंहटाएंक्यूँ महंगी सिगरेट से, रहा करेज जलाय ।
रहा करेज जलाय , जलाए खुद को बन्दा ।
माचिस सस्ती पाय, फूंक दे बजट पुलिन्दा ।
तौले प्रणव प्रधान, धान सब बइस पसेरी ।
खींचे चौपट कान, बढ़ा फिर नगर अँधेरी ।।
बढ़िया व्यंग्य।
जवाब देंहटाएंगाँव कब तक शहर के जंजाल से बचे रहते हैं.…………पता नही कब तक?
जवाब देंहटाएंएक अच्छा चिंतनीय लेख...
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !
बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंबढ़िया व्यंग्य।
good analysis of the budget.
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