इधर कुछ दिनों से
बाबूजी को
लहलहाते खेत
अच्छे नहीं लगते
डर लगता है उन्हें
पकी हुई फसल देख
अचानक से रोने लगते हैं
दहाड़े मार मार
हो गया हो मानो
पुत्रशोक
बहुत संभालना पड़ता है उन्हें
पूछने पर बताते हैं कि
चाहते हैं वे
गेहूं कटने से पहले
आग लगा दें
लहलहाते खेतों में
या ओले पड़ जाएँ
प्राकृतिक आपदा आ जाये
बडबडाते हैं
खुद से बाते करते हैं
खुद को अभिमन्यु कहते हैं
जिसके लिए चक्रव्यूह से बाहर निकलना
असंभव सा है
और समझ नहीं आती
किसी को भी
उनकी बातें
नहीं चाहते
फसल काटने के बाद
गिड़गिडायें
पान चबाते बिचौलियों के सामने
या फिर सरकार की ओर से नियुक्त
मोटे पेट और चश्मा लगाये अधिकारियों के सामने
टेक दें घुटने
हाल में बने
काले काले बड़े और ऊँचे गोदाम
कहते हैं शीतघर जिसे,
बाबूजी डरते हैं
उसकी परछाई से
दैत्य सा लगता है वह
जोर जोर से चिल्लाते हैं
शीतघर के दरवाजे पर खड़े हो
कालाबाजार का घर कहते हैं उसे
जला देना चाहते हैं उस शीतघर को
कुछ लोग कहते हैं
बूढ़े और पागल हो गए हैं
कुछ लोग कहते हैं
आत्महत्या कर लेनी चाहिए उन्हें
गाँव से भगा देना चाहते हैं कुछ लोग
जिन खेतो की मेडों पर
बचपन और जवानी के पैरों के निशान हैं
आज उन्ही खेतो में
नहीं जाते हैं बाबूजी
(किस वैशाखी की शुभकामनाएं दे हम बाबूजी को)