बुधवार, 18 अप्रैल 2012

औरत और सब्जी

रसोई में
औरत बनाती है
सब्जी
उसके मन में
होते हैं
पति,
बच्चे
वह खुद नहीं होती

पक रही होती है
वह खुद ही
कडाही में
जबकि
चला रही होती है
सब्जियां

स्वाद होता है
उसकी जिह्वा पर
पति का
होती है
बच्चो की जिद्द
और उनका मनुहार

आशंका होती है
मन के एक कोने में
पति  के चिल्लाने का
बच्चों   द्वारा थाली फेंक  देने का
और भूल जाती है
कब सट गई थी कोहनी
गरम कडाही से

फफोले थक कर खुद ही
शांत पड़ जाते हैं
औरत सब्जी भर रह जाती है  

39 टिप्‍पणियां:

  1. अरुण जी! कविता हमेशा की तरह आपका हॉलमार्क है.. मगर मैं उस औरत से कभी मिला नहीं, इसलिए पहचान नहीं पाया.. जिससे मैं मिला हूँ उसका परिचय आपसे करवा दूं!!!
    /
    मैंने जिस औरत को देखा है
    किचन में बनाती हुई सब्जी
    दिन भर के अवसाद
    मसालों की तरह
    कढाई में भून देती है वो
    अपने पति के आगमन
    और बच्चों की किलकारियों के लिए.
    सारी परेशानियों को
    उड़ा देती है भाप की तरह
    सीटी बजाते हुए कुकर सी.
    गाज़र सी लाल, पालक सी हरी
    मटर की तरह दांतों को दिखाती मुस्काती,
    परोसती है जब
    खाने की मेज़ पर
    स्वाद और सेहत से भरी सब्जी नहीं
    सब्ज़ परिवार के बागबान की तरह!!

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    1. आपकी टिप्पणी के लिए मेरी कविता प्रतीक्षा में रहती है...

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  2. aurat ne lkhi hoti ye panktiyaan tab to samajh aata....par ek aurat ko..uske vajud ko....parivar me uske maayne...aapne rasoyi me maadhyam se khubsurti se sab samjhaya hain.....gajab....shayad ek aurat bhi na kar paati ye jo aapne kaha hian.....salute to u sir...

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  3. भोजन बनाना किसी साधना से कम नहीं, बड़ी सुन्दर कविता..

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  4. बहुत सुंदर भाव अरुण जी.....
    मन को छु गयी आपकी रचना....

    मगर आज की औरत काफी स्मार्ट है शायद बिहारी बाबू ने सही परिचय दिया...
    सादर

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  5. अरुण यार क्या बात कही है। लगा अपने घर की कहानी हो। इस की आंच को आंच पर चढ़ाना होगा। लेकिन अभी ही एक और बेहतरीन कविता गिरिजा जी के ब्लॉग पर पढ़ आया हूं। विषय कुछ ऐसा ही है। और उन्हें कमिट कर आया हूं कल के लिए। इसलिए इसको अगले सप्ताह। तब तक आपकी सहमति के इंतज़ार में।

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    1. मनोज जी आंच को मैं ब्लॉग का नामवर मानता हूं. आंच पर चढ़ना एक उप्ब्लाधि सा होता है मेरे लिए... आप तो मुझे आदेश करें...

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  6. सोचा

    दो उत्कृष्ट रचनाओं को पढ़कर

    कुछ मैं भी प्रस्तुत करूँ -

    पर मूल रचना तो मूल ही है ।

    बधाई --

    स्वाद नमक का स्वेद से, मीठा-पन है स्नेह ।

    यही दर्द क्वथनांक है, जलती थाली देह ।


    जलती थाली देह , बना करुनामय चटनी ।
    धी-घृत से हररोज, चूरमा बेकल-मखनी ।

    अरमानों की महक, ठगे-दिल का दे चूरन ।
    पति पर गर कुछ खीस, पुत्र करता मन पावन ।।

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  7. पुनश्च :
    सलिल जी की टिप्पणी अभी अभी देखी। अब तो पहले उनकी कविता पर आंच लगाना बनता है।

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  8. मेरी एक टिप्पणी गायब है --
    यह लिखा था
    अरुण यार क्या बात कही है। लगा अपने घर की कहानी हो। इस की आंच को आंच पर चढ़ाना होगा। लेकिन अभी ही एक और बेहतरीन कविता गिरिजा जी के ब्लॉग पर पढ़ आया हूं। विषय कुछ ऐसा ही है। और उन्हें कमिट कर आया हूं कल के लिए। इसलिए इसको अगले सप्ताह। तब तक आपकी सहमति के इंतज़ार में।

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  9. हर पंक्ति जैसे किसी नारी हृदय से निकली हो ... बहुत सुंदर

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  10. dil ko chu gayi aapki baat....eak himakt karungi apna likh apost kar rahi hun...
    चूल्हे मे लकड़ी सी जलती ,
    पतीली मे दाल सी गलती,
    चक्की मे दानो सी पिसती ,
    टाइप रायटर मे रिबन सी घिसती ,
    मै ही तो हूँ . सब और , हर तरफ .
    सड़क पर पत्थर सी कुटती,
    घर पर फर्नीचर सी सजती ,
    कुएं पर काई सी जमती .
    मै ही तो हूँ , सब और , हर तरफ .

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  11. बेहतरीन शब्द चित्रण ....
    शुभकामनायें अरुण !

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  12. भोजन मन से बनाया जाता है तभी स्वाद आता है ।

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  13. फफोले थक कर खुद ही
    शांत पड़ जाते हैं
    औरत सब्जी भर रह जाती है ………सहज शब्दों मे सब कुछ कह देना यही तो आपकी खासियत है अरुण जी और दिल पर कडा प्रहार भी कर देना ताकि कुछ देर टीसता रहे …………शानदार भाव संयोजन्।

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  14. आपका अपना अंदाज़ है अरुण जी ... और आपकी विभिन् शैली पहचान है आपकी कविताओं की ...
    गहरी दृष्टि रखते हैं आप ...

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  15. वाह बहुत ही सुन्दर।

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  16. बहुत ही गहनता से भावों को शब्‍द दिये हैं आपने ...आभार ।

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  17. is dard ko mahsoos karne ke liye aabhari hun ,chuninda post hae aaki aabhr.

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  18. बहुत कुशलता से स्त्रियों के मन के अंदर झाँक कर देखा है..
    सुन्दर कविता

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  19. अब भी कोहनिया जलती हैं
    अब भी नमक कम ज्यादा होता हैं
    पर
    अब बच्चो का थाली फेकना
    और
    पति का चिलाना
    बस वहीँ होता हैं
    जहां एक माँ और पत्नी नहीं
    एक औरत खाना बनाती हैं

    हमारे घर में ऐसी क़ोई
    औरत खाना नहीं बनाती
    माँ , बेटी , पत्नी और बहू बनाती हैं
    जो औरत नहीं हैं
    उनको औरत ना कहे

    और कहीं औरत देखे
    तो घंटी बजा दे ताकि
    औरत को इन्सान
    वो परिवार समझने लगे

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  20. खाना बनाते स्त्रियों का मन पति और बच्चों के स्वाद और सेहत में रमा होता है ...
    स्त्री के अंतर्मन को बखूबी बयान किया आपने !

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  21. स्वाद भरी रचना अरुण जी क्या कहने आपने

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  22. अरुण जी आपकी इस सुन्दर कविता के साथ बाबूजी ..आदि अन्य कविताएं भी पढी । सभी लाजबाब हैं ।

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  23. नारी मन और भावनाओं के चूल्हे पर पकी बेहतरीन प्रशंसनीय
    प्रस्तुति

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  24. बहुत ही खूबसूरत कविता है अरुण जी!!
    और उतनी ही सुन्दर कविता सलिल चचा ने कही है!! :)

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  25. बहुत सुंदर
    सब्जी है तो
    नहीं कह सकता
    सब्जी देख लेगी
    तो पिट जाउंगा
    फिर कभी भी
    सब्जी नहीं खा
    पाउंगा ।

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  26. फफोले थक कर खुद ही
    शांत पड़ जाते हैं
    औरत सब्जी भर रह जाती है ……
    औरत आखिर कब औरत होती है .. जिह्वा और स्वाद सब अभिरंजित होते हैं पति और बच्चे के जिह्वा और स्वाद से ...

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  27. रसोई में
    औरत बनाती है
    सब्जी
    उसके मन में
    होते हैं
    पति,
    बच्चे
    वह खुद नहीं होती

    अंतर्मन को छू गयी ....

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  28. aurat ne apne liye bhi kabhi jiya hai bhala??
    bahut sundar rachna

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