एक रेखा है
कुछ लोग
उसके नीचे हैं
कुछ लोग ऊपर
कुछ दायें
कुछ बाएं
उसके नीचे हैं
कुछ लोग ऊपर
कुछ दायें
कुछ बाएं
रेखा सीधी है
इसके नाक कान, दिल सब हैं
रेखा मौजूद है
गाँव, घर देहात,
फैक्ट्री, मैदान,
नदी, समुद्र,
पहाड़, जंगल
हर जगह
वैसे रेखा तो
अदृश्य है
किन्तु रेखा के उस ओर रहने वालों को
इस ओर दिखाई नहीं देता
एक अपारदर्शी झिल्ली उभर आती है
दीवार की तरह
रेखा के ऊपर.
चढ़ जाती है
सोच पर , सरोकार पर
और मोटी हो जाती है
किन्तु रेखा के उस ओर रहने वालों को
इस ओर दिखाई नहीं देता
एक अपारदर्शी झिल्ली उभर आती है
दीवार की तरह
रेखा के ऊपर.
चढ़ जाती है
सोच पर , सरोकार पर
और मोटी हो जाती है
झिल्ली
झिल्ली जो प्रारंभ में
थी रंगहीन गंधहीन
बाद में इसका रंग
कुछ हरा कुछ लाल
कुछ नीला तो कुछ नारंगी हो गया है
कुछ 'इज्म' जुड़ गए हैं
इस झिल्ली के साथ
जिसने जकड लिया है
रेखा के इस ओर उस ओर रहने वालों को
रेखा के इस ओर उस ओर रहने वालों को
झिल्ली के बीच
होते रहते हैं तरह तरह के संवाद
जबकि रेखाओ के बीच गहरी हो जाती है
गहरी खाई
झिल्ली तय करती है
रेखाओं की लम्बाई, मोटाई,
चौड़ाई और गहराई
इसके पास है
तेज़ तेज़ हथियार जिससे कतर देती है
रेखाओं पर उपजी कोपलों को
रेखाओं को संज्ञा शून्य , विचारशून्य कर देती है
रेखा सीधी है और झिल्ली अपारदर्शी .
कितना गहन लिखा है .... एक बार फिर पढ़ना पड़ेगा ....
जवाब देंहटाएंझिल्ली के बीच
जवाब देंहटाएंहोते रहते हैं तरह तरह के संवाद
जबकि रेखाओ के बीच गहरी हो जाती है
गहरी खाई
बहुत सही कहा ...आपने
एक अपारदर्शी झिल्ली उभर आती है
जवाब देंहटाएंदीवार की तरह
रेखा के ऊपर.
चढ़ जाती है
सोच पर , सरोकार पर
और मोटी हो जाती है
झिल्ली
वाह....
बहुत बढ़िया..
सादर.
अस्तित्वों के बीच एक काल्पनिक रेखा खींच दी है..
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत गहन अभिव्यक्ति....हैट्स ऑफ इसके लिए ।
जवाब देंहटाएंझिल्ली अमरबेल हो गयी और रेखा उसके काबू में एक अस्त्र जिसका मनचाहा इस्तेमाल होता है
जवाब देंहटाएंबड़े सरल शब्दों में समीचीन और संवेदनशील तथ्य को संवेदित कर दिया है ,आवश्यकता है ,शंस्लेषण की ,विश्लेषण की ,इंसानों की बीच,रेखा व झिल्ली का वजूद कैसे ?
जवाब देंहटाएंरेखा सीधी है और झिल्ली अपारदर्शी
जवाब देंहटाएंपर इस रेखा को किसने देखा है ... अदृश्य है, अमूर्त है, अबोध है .. पर है जरूर
सुविधा-भोगी छद्मता, भोगे रेखा-पार।
जवाब देंहटाएंवंचित भोगे *त्रिशुचता, अलग-थलग संसार ।।
*दैहिक-दैविक भौतिक ताप ।
bahut gahri baat......achchi lagi.
जवाब देंहटाएंअरुण जी यह अरुण टाइप कविता नहीं, मुझे तो अज्ञेय-शमशेर टाइप लगी। कभी कभी ऐसा परिवर्तन भी भाता है। वह रेखा विभाजन नहीं विस्तृति की रेखा है। और खिंचते रहनी चाहिए।
जवाब देंहटाएंहमारे व्यक्तित्व और अन्तर्मन के बीच खिंची रेखा और अपारदर्शीय झिल्ली के बीच का अन्तर्द्वन्द और विश्लेषण को बडी संजीदगी से उभारा है आपने।
जवाब देंहटाएंअदृश्य पर सब कुछ बाँटती रेखाएं ...गहरी अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंज्यों ज्यों ज़िन्दगी आगे बढ़ती है
जवाब देंहटाएंरेखाओं के साथ पारदर्शी अपारदर्शी झिल्लियों के साथ खाइयां भी होती हैं
गिरने का भय नट बनना सिखाता है
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति |
हटाएंशुक्रवारीय चर्चा मंच पर ||
सादर
charchamanch.blogspot.com
वाह भाई साहब आहलुवालिया का अर्थ शाश्त्र बुधुआ को समझा दिया .
जवाब देंहटाएंकृपया यहाँ भी पधारें -
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
टी वी विज्ञापनों का माया जाल और पीने की ललक
झिल्ली के बीच
जवाब देंहटाएंहोते रहते हैं तरह तरह के संवाद
जबकि रेखाओ के बीच गहरी हो जाती है
गहरी खाई
बहुत ही गहन अभिव्यक्ति
achhi hai.
जवाब देंहटाएंrekha ke paar jana hai:)
जवाब देंहटाएंkhyaal ... kisi philosopher kee tarah uthey aur vyvastha aur har kshetr me badti duriyon ka sangyavihinta ka khyaal is rekha aur apaardarshi jhilli kee tarah aaya ...umda
जवाब देंहटाएंबहुत ही गूढ़ सत्य है..... और इतना गहन लेखन ...तीन बार पढ़ा तब जाकर इतना ही समझ पाया कि मनुष्य कितना आत्मकेन्द्रित हो गया है
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