तोड़ दो
मेरे हाथ
क्योंकि ये
लहराना चाहते हैं
मुट्ठी
तुम्हारे विरोध में
उन सबके विरोध में
जो हैं मिटटी, हवा के विरोध में
तोड़ दो
मेरी टाँगे
क्योंकि ये
चलना चाहते हैं
संसद के दरवाज़े तक
और खटखटाना चाहते हैं
बंद दरवाज़े
जहाँ बन रहे हैं
मेरे खिलाफ नियम
मेरी जिह्ह्वा
काट लो
क्योंकि यह लगाना चाहती हैं
नारे तुम्हारे खिलाफ
तुम्हारी कुनीतियों के खिलाफ
जो छीन रही रही
मेरी ज़मीन , मेरे जंगल
मेरे लोग
मेरी आँखे
फोड़ दो
जो देखना चाहती हैं
सत्ता से
पूँजी की बेदखली
फिर भी
लहराएगा हाथ
भिन्चेगा मुट्ठियाँ,
कदमो के शोर से
हिल देगा संसद का परिसर
और बिना जिह्वा भी
नारे से गूँज उठेगा
राजपथ।
ऐसा सैलाब रोके नहीं रुकता.....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति...
अनु
नवरात्रि की शुभकामनायें-
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति है आदरणीय
" राज करते-करते शासन दुशासन हो गया मिश्र जैसा महौल आज भारत में आया है ।" सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।
जवाब देंहटाएंभई वाह ,
जवाब देंहटाएंसड़ी गली व्यवस्था का विरोध कैसे हो ?
व्यवस्था खराब हो तो विरोध होना ही चाहिए...!
जवाब देंहटाएंनवरात्रि की बहुत बहुत शुभकामनायें-
RECENT POST : पाँच दोहे,
होगा होगा होगा !
जवाब देंहटाएंये साहस बरकरार रहे तो थरथरा सकता है पूरा पथ ...
जवाब देंहटाएंमन के आक्रोश को शब्द देने के कला बाखूबी है आपमें अरुण जी .... बहुत प्रभावी रचना ...
उत्साह से लथपथ शब्द
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