उसे
बोझ ढोने से
फुर्सत नहीं मिली
जो बनाता
मुट्ठियाँ
लगाता नारे
उठता झंडा
वह कामरेड न हो सका
उसके घर का चूल्हा
दो वक्त
जला नहीं कभी
नियमित
जो जा सके वह
किसी रैली में
सुनने किसी का भाषण
ढोने पार्टी का झंडा
वह कामरेड न हो सका
वह कभी
स्कूल न गया
फिर कैसे पढ़ पाता वह
दास कैपिटल
वह सुनता रहा
मानस की चौपाइयां
कबीर की सखियाँ
वह कामरेड न हो सका
उसे
बचपन से ही
लगता था डर
लाल रंग से
प्राण निकल जाते थे उसके
छीलने पर घुटने
उसे प्रिय था
खेतो की हरियाली
वह कामरेड हो न सका
वाह ...
जवाब देंहटाएंअनूठी रचना !!
उसके घर का चूल्हा
जवाब देंहटाएंदो वक्त
जला नहीं कभी
नियमित
जो जा सके वह
किसी रैली में
सुनने किसी का भाषण
ढोने पार्टी का झंडा
वह कामरेड न हो सका ,,,,
लाजबाब ,बहुत सुंदर प्रस्तुति ,,,
RECENT POST -: तुलसी बिन सून लगे अंगना
बहुत खूब जय हो
जवाब देंहटाएंबाकी सब कामरेड हो गये !
जवाब देंहटाएंबहुत खूब !
बहुत पते की बात --वह कामरेड न हो सका ,,,,
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट सपना और मैं (नायिका )
मजदूर की बेचारगी उसे कुछ नहीं होने देती ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही गहरी संवेदना लिए ... सच को दांतों से उठाए ... उम्दा रचना ...
Itne dinon baad aapki rachna padh raha hoon... Wahi asar hai... Jeete rahiye!!
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक।
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