कच्ची सड़को को छोड़
जब चढ़ता हूँ
पक्की सड़क पर
पीछे छूट जाती है
मेरी पहचान
मेरी भाषा
मेरा स्वाभिमान !
कच्ची सड़क में बसी
मिटटी की गंध से
परिचय है वर्षो का
कंक्रीट की गंध
बासी लगती है
और अपरिचित भी
अपरिचितों के देश में
व्यर्थ मेरा श्रम
व्यर्थ मेरा उद्देश्य
लौट लौट आता हूँ मैं हर बार
पीठ पर लिए चाबुक के निशान
मनाने ईद , तीज , त्यौहार
कहाँ मैं स्वतंत्र
मैं हूँ अब भी गुलाम
जो मुझे छोड़नी पड़ती हैं
कच्ची सड़क !
हाँ, बहुत कुछ छूटता है .... उत्कृष्ट बिम्ब ....
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंकहाँ मैं स्वतंत्र
जवाब देंहटाएंमैं हूँ अब भी गुलाम
जो मुझे छोड़नी पड़ती हैं
कच्ची सड़क !
...बहुत कुछ छूट जाता है कच्ची सड़क के साथ...सुन्दर अभिव्यक्ति...
sach kaha......bahut khoob
जवाब देंहटाएंकच्ची सड़क को दिल में रखते हुए जब हम पक्की सड़क पर चढ़ते हैं तो विकास की ओर भी बढ़ते हैं और जड़ों से भी जुड़े होते हैं। दोनों जरूरी हैं।
जवाब देंहटाएंलेकिन ऐसा हो न पाया है। कच्ची सड़क और पक्की सड़क के बीच बहुत बड़ी खाई है। इन दोनों सड़को को केवल सड़क न समझे !
हटाएंजब भी हम पक्की सड़क पर चलते हैं ,अपने आपसे दूर होते हैं । हम सचमुच अपनेआप से दूर हो रहे हैं किसी अनिश्चित दिशा की ओर । अच्ची भावपूर्ण रचना ।
जवाब देंहटाएंजब भी हम पक्की सड़क पर चलते हैं ,अपने आपसे दूर होते हैं । हम सचमुच अपनेआप से दूर हो रहे हैं
जवाब देंहटाएं............गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी सहमत हूँ आप की बातों से
कच्ची सड़क पर दिल है , पक्की पर दिमाग.
जवाब देंहटाएंकितना कुछ खो देते हैं कुछ पाने के लिए उस पक्की सड़क को ...
जवाब देंहटाएंकच्ची सड़क से त्यौहार मनाने का रिश्ता बच रहा ..चलो इतना भी बहुत है ..बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं