गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

जीवन सुबह है

 उठ रहे हैं 
फुटपाथ से लोग 
जिनके घर नहीं हैं 
सुबह होने से पहले 
उनके लिए होता है भोर 

गाड़ियों का शोर 
थोड़ा बढ़ गया है 
बढ़ गई है 
चहलकदमियां 
जीवन की 
जो सोई थी देर से 
लेकिन जग गई है भोर 

होर्डिंग पर टंगी लड़की 
ओस में नहाकर भी 
ताज़ी नहीं लगती 
और ट्रैफिक लाइट को नहीं मानती 
लम्बी काले शीशो वाली गाड़ियां 


अखबार वाला साइकिल हांकता है 
जल्दी जल्दी 
जितनी तेज़ी से चलती है छापे की मशीन 
कहाँ कभी किसी ने बनाया उसे 
पहले पन्ने का आदमी 
जबकि पहला आदमी है वह 
जो सूंघता है हर रोज़ 
स्याही की गंध, खबरों की शक्ल में 

एक चुप्पी छा जाती है 
चिड़ियों के झुण्ड के बीच 
तभी म्युनिस्पलिटी की गाड़ी 
गड गड कर गुज़रती है 
मरे हुए जानवर को लेकर 

शहर के अस्पताल के आगे 
शुरू हो जाती है लगनी लम्बी कतार 
पोस्टमार्टम हाउस के आगे 
नहीं रोता है कोई छाती पीट पीट कर 
मुट्ठी में छुपा के रखता है सौ दो सौ रूपये 
मेहतर के लिए 
और इसी तरह होती है अमूमन हर सुबह।  

1 टिप्पणी:

  1. सुबह की ताजगी में में बहुत सी पीडाएं कराहती हैं
    मन को छूती अभिव्यक्ति

    आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी पधारें
    सादर

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