सोमवार, 6 जून 2016

कहानी : डर

डर

अरुण चन्द्र रॉय

      रात के दस बज रहे हैं।  मैं टीवी देख रहा हूँ।  स्‍क्रीनपर कोई क्रिकेट का मैच चल रहा है।  कॉमेंटेटर जोर जोर से चिल्ला रहा है।  चीयरगर्ल नाच रही है।  स्टेडियम में लोग उन्माद में हैं।  स्टेडियम खचाखच भरा हुआ है।  तरह तरह के चेहरे स्क्रीन पर क्लोज़अप में दिखाए जा रहे हैं।  कैमरा कई बार छाती पर फोकस करके रुक जाता है।  . मुझे लगता है कि क्रिकेट की गेंद अभी सकीं तोड़ कर निकलेगी और मेरा माथा फोड़ देगी।  मैं पसीने पसीने हो जाता हूँ।  सर्दियों में भी मुझे गर्मी लगने लगती है।  मैं अपना स्वेटर उतार लेता हूँ।  सोफे पर पसर जाता हूँ।  बड़ी मुश्किल से मैं रिमोट उठा पाता हूँ।  मैं चैनल बदल देता हूँ लेकिन क्रिकेट की गेंद मेरा पीछा नहीं छोड़ती हैं।  वह मेरी  छाती के पिच पर कभी यॉर्कर तो कभी बाउंसर की तरह लगातार पड रही है।  

      ये कोई नया चैनल है।  कोई महात्मा रात के दस बज़े प्रवचन दे रहे हैं।  एक बार तो मैं भूल ही गया कि ये कोई रिकार्डिंग हैं।  महात्मा के सामने हजारो लोग तल्लीन होकर प्रवचन सुन रहे हैं।  महात्मा प्रभु का गुणगान कर रहे हैं।  बीच बीच में सुन्दर संगीत बजता है।  महात्मा झूमने लगते हैं।  भक्त भी झूम उठते हैं।  कुछ वोलेंटियर टाइप लोग बीच बीच में घूम रहे हैं।  उनके हाथ में जानवरों को हांकने वाला डंडा है।  वे व्यवस्था देख रहे हैं।  जिस दुनिया को उनके प्रभु ने बनाया है उसकी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उन्होंने डंडा रख लिया है।  सभा में बहुत शांति दिख रही है।  पांडाल की भव्यता देखने लायक है।  अचानक मुझे लगता है कि पांडाल में संगीत का स्वर तेज़ हो गया है।  मैंने टीवी को म्यूट कर दिया।  लेकिन संगीत का शोर बढ़ता ही जा रहा है।  मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा है।  म्यूट टीवी से शोर बाहर निकल रहा है।  मैं टीवी बंद कर देता हूँ लेकिन फिर भी संगीत का शोर मेरे कानो के पर्दो को फाड़े जा रहा है।  मैं अपने कान बंद करने की कोशिश कर रहा हूँ लेकिन असफल हो रहा हूँ।  मुझे फिर से पसीना आने लग गया है।  मैं अपनी कमीज भी उतार कर फेंक दी है।  मैं घर से बाहर निकल आता हूँ।   रात गहरी हो गई है।  
      मैं बनियान में ही घर से बाहर आ गया हूँ।  मेरी कालोनी का सिक्योरिट गार्ड जग रहा है। सर्दी में जब बाहर का तापमान बेहद कम है फिर भी मुझे बनियान में देख उसे आश्चर्य नहीं लग रहा है।  एक्का दुक्का गाड़ियां अभी कालोनी में घुसी हैं।  उन्होंने मुझे बनियान में देखा है।  लेकिन उन्होंने भी कुछ नहीं कहा। सोचता हूँ अच्छा है कि यहाँ कोई कुछ नहीं कहता।  फिर सोचता हूँ मेरे फ्रिज में क्या रख है , मेरे किचन में क्या पका है ये कैसे पता लग जाता है कुछ लोगों को।  ये सोचते ही मुझे लगता है कि एक बाउंसर गेंद मेरे कानो को छूती हुई निकल गई है।  फिल्मों में जैसे गोली निकलती है , वैसी ही आवाज़ थी।  मैं गेंद से बचता हूँ कि महात्मा के सभा का संगीत मेरे कानो में जोर जोर से बजने लगता है।  
      मैं होश में हूँ कि नहीं ये तय नहीं कर पा रहा लेकिन ऐसा लगता है कि मैं काफी दूर निकल आया हूँ चलते चलते।  स्ट्रीट लाइट में कुछ बच्चे फुटबॉल खेल रहे हैं।  मुझे आता देख वे रुक जाते हैं।  मैं भी बच्चों को खेलता देख रुक गया हूँ।  बच्चे कुछ देर तक मेरा इंतजार करते हैं कि मैं सड़क पार कर लूँ।  लेकिन जब मुझे ठहरा देखते हैं तो वे फिर से खेलने लेफ्ट हैं।  मैं वहीँ किसी बंद दूकान की सीढ़ियों पर बैठ जाता हूँ।  देर तक बच्चों को खेलता देखता हूँ।  बच्चे थक गए हैं।  वे टूटे नलके में मुँह लगा के बारी बारी से पानी पी रहे हैं।  मेरे मन में ये विचार नहीं आया कि टूटे नलके का पानी पीकर ये बीमार हो जायेंगे।  बच्चे मुझे शायद पागल समझ रहे होंगे।  वे अपना खेल बंद कर वहीँ बंद दूकान के आगे सोने की तैयारी कर रहे हैं।  वहीँ कूँ कूँ करते कुछ कुत्ते भी आ गए हैं।  शायद ये उनका रूटीन हो।  कुत्ते भी एक ओर सो गए हैं।  बच्चे भी सो गए हैं।  रौशनी मद्धम हो गई है।  कोहरा भी घना हो रहा है।  स्ट्रीट लाइट भी एक्का दुक्का ही जल रहा है।  पीली रौशनी कोहरे में और भी बीमार सी लगती है।  
      मैं लौटने लगता हूँ घर को।  जैसे ही पलटता हूँ, मुझे लगता है कि कोई तेज़ आती गाडी ने बच्चों को रौंद दिया है।  बच्चे और कुत्ते सब के परखचे उड़ गए हैं।  मीडिया की गाड़ियां आ गई है।  टीवी पर मोटे मोटे हेडलाइंस आ रहे हैंतीन बच्चों को गाडी ने रौंद दिया।  कौन देगा इन्साफ।  मुझे लगता है जब ये बच्चे सोने जा रहे थे, मैं उन्हें अपने घर क्यों नहीं ले आया।  यदि अपने घर ले आया होता तो ये बच्चे गाडी के नीचे रौंदे नहीं गए होते।  मैं अपराधबोध से भर जाता हूँ।  मेरे कदम उठ नहीं रहे हैं।  मैं हिम्मत करके पीछे देखने की कोशिश कर रहा हूँ।  मैं पसीने से नहा उठता हूँ।  लेकिन इस पसीने में चिपचिपाहट नहीं है। मैं काफी देर तक हिल भी नहींपाया।  एक बार फिर हिम्मत करता हूँ पीछे देखने की।  देखता हूँ कि बच्चे और कुत्ते निश्चिन्त से सो रहे हैं।  वे गहरीं नींद में हैं।  अभी अभी एक गाडी तेज़ी से निकली है लेकिन बच्चे हिले भी नहीं।  मुझे नींद नहीं आ रही जबकि मैं भी बच्चों और कुत्तों की तरह सोना चाहता हूँ।  गहरी नींद में।  
      मैं घर की ओर लौटता हूँ।  कमरा खुला रही रह गया था।  बीच में शायद बत्ती चली गई थी।  अब बत्ती आ गई है।  मैं टीवी बंद करना भूल गया था।  टीवी अब भी चालू है लेकिन कोई चैनल नहीं आ रहा है।  स्क्रीन पर रंगों के छोटे छोटे गोले झिलमिल झिलमिल कर रहे हैं।  मुझे किसी चैनल से बेहतर ये रंग के गोले लग रहे हैं।  मैं स्क्रीन को एकटक देखने लगता हूँ।  इन गोलों से मैं कभी सूरज बना देता हूँ तो कभी चाँद।  हरे रंग के गोलों को चुनकर मैंने पेड़ की पत्तियां बना दी हैं।  ये पत्तियां डोल रही हैं।  हवा में रंग के गोले तैर रहे हैं।  मैं इन गोलों को पकड़ने के लिए दौड़ रहा हूँ।  जैसे वे बच्चे फुटबाल के पीछे दौड़ रहे थे।  मैंने उन बच्चों के फ़ुटबाल को भी अलग अलग रंगो से रंग दिया है। बच्चे खुश हो गए हैं।  मैं ने टीवी स्क्रीन से कुछ रंग निकाल कर एक तितली बन दी है और बालकोनी में रखे गमले के फूलों पर बैठा दिया है।  फूल हंसने लगे हैं।  तभी क्रिकेट की गेंद तेज़ी से आती है और टीवी का स्क्रीन टूट जाता है। फूलों से तितली उड़ जाती है।  बच्चों का फ़ुटबाल धूसर हो जाता है।  पेड़ों की पत्तियां काली रह जाती हैं।  हवा में पार्टिकुलेट मैटर फिर से तैरने लगे हैं रंग के गोलों की बजाय।  मैं फिर से पसीने से भर जाता हूँ।  
      घडी पर नजर जाती है तो पता चलता है कि तारीख बदल गई है।  लेकिन कैलेण्डर की और देखता हूँ तो वह चुपचाप ही लगता है।  तारीख के बदलने का कोई रोमांच कैलेण्डर को नहीं होता।  तारीख के बदलने का रोमांच अखबार वाले लड़के को भी नहीं होता है।  सुबह अखबार वाला लड़का आएगा।  उसके लिए तारीख, दिन, महीने का मतलब ढूँढ़ने की असफल कोशिश करता हूँ।  कोई मतलब नहीं निकलता है उसके लिए।  उसके लिए गांधी जी का जन्मदिन और उनकी पुण्यतिथि का मतलब एक ही है।  तीसरी चौथी मंजिल तक सधे हाथों से अखबार फेंकना।  
      तीसरी मंजिल पर वह तीन अखबार इस तरह फेंकता है कि बालकोनी में रखे गमले के पौधे टूट न जाएँ।  कई बार उसे लोगों से डांट खाते सुना है इस बात के लिए।  कितना सधा हुआ हाथ है उसका। मुझे उस लड़के का नाम नहीं मालूम।  मैंने उससे कभी उसका नाम नहीं पूछा।  
      वह हमेशा लाल रेंज की टीशर्ट पहनता है। उसपर अखबार का नाम और लोगो लगा होता है।  कल रात जो क्रिकेट मैच चल रहा था उसमे भी खिलाडी नाम और लोगो वाले टीशर्ट पहन रखे थे।  उनके टीशर्ट के आगे , पीछे , बाहों पर सब जगह नाम लिखे थे , लोगो लगे थे।  मुझे किसी ने बताया था कि इन्ही नामों की वजह से वे क्रिकेट खेलते हैं।  लेकिन यह अखबार वाला लड़के इन नामों की वजह से अखबार नहीं बांटता। उसे अपनी अधूरी पढाई पूरी करनी है, भाई को भी पढाना है ।  
      मैं कमरे से निकल कर बालकोनी में आ जाता हूँ।  आसमान थोड़ा ही दीखता है यहाँ से।  आसमान तो दिख भी जाता है लेकिन तारे कहाँ दिख पाते हैं।  कालोनी में रौशनी और मद्धम हो गया है।  कोहरा और भी बढ़ गया है।  दूर गाड़ियों के चलने की आवाज़ धीरे धीरे आ रही है।  एकांत यहाँ पूरी तरह नहीं हो पता है।  कोई न कोई, किसी न किसी वजह से किसी न किसी उपाय से एकांत को तोड़ ही देते हैं या तोडना चाहते हैं।  एकांत इन्हे अच्छा नहीं लगता है।  जबकि सब के सब अकेले ही हैं।  
      बच्चे बेडरूम में सो रहे हैं।  अकेले ही तो हैं वे।  पत्नी भी सो रही है।  अकेली ही तो हैं वह।  लेकिन एकांत कहाँ है उनके पास भी।  कल की ही तो बात है जब मैं बेटेको स्कूल छोड़ने के लिए जा रहा था अपनी स्कूटी पर।  बेटा मुझे जोरो से पकड़ कर बैठा था।  मेरा पेट बढ़ने से उसके नन्हे हाथ पूरी तरह नहीं पहुंच पा रहे थे।  उसके पीठ पर भारी भरकम बैग टंगा बंधा था।  मैंने कहा भी कि बैग उतार कर मुझे दे दो , मैं सामने रख लूँगा लेकिन वह बस्ते से ऐसेअटैच था कि उसने मना कर दिया।  वह बैग में दुनिया भर की चीज़े रख लेता है , ताकि कुछ भूल न जाए, छूट न जाए।  मेरे पूछने पर उसने बताया था कि इनदिनों विज्ञानं में "फारेस्ट" चैप्टर चल रहा है।  वह मुझपर जोर जोर से हंसा था जब मैंने कहा था कि फारेस्ट पढ़ने के लिए किताब की क्या जरुरत ! मैं रास्ते में पड़ने वाले पार्क के सामने रुक कर कुछ पेड़ और पौधों की पहचान भी कराई थी उसे।  लेकिन वह स्कूल के लिए देर हो रही थी, मैं ने उसे समय पर स्कूल पंहुचा दिया था।  बेटे के स्कूल छोड़ने के बाद लौटते हुए मैं अकेला ही था।  अचानक लगा कि बेटे का स्कूल बैग मेरी पीठ पर टंगा है।  स्कूल बैग का आकार अचानक बढ़ने लगा था। किताबें बैग से निकल कर फड़फड़ाने लगे।  कापियां बिखर गईं।  किताबों से अक्षर निकल कर मेरे माथे पर मक्खियों की तरह भिनभिनाने लगे और मैंने तेज़ी से ब्रेक लगाया।  पीछे से आती कार की टक्‍क्‍र से मैं बाल बाल बचा था।  
      मैं अब भी बालकोनी में ही खड़ा हूँ।  चांद पूरा दिख रहा है।  चाँद की रौशनी से स्ट्रीटलाइट का पीलापन कम हो रहा है।  अचानक लगता है कि बिजली के खम्भे से तार निकल कर मेरे पूरे शरीर पर लिपट रहे हैं।  चारो ओर से तार आने लगे हैं , बिजली के, इंटरनेट के , टेलीफोन के, टीवी के तारों ने चारो ओर से घेर लिया है मुझे है।  स्पेशल इफेक्ट की तरह वाईफाई से , मोबाइल के टावर से और न जाने कहाँ कहाँ से ऑप्टिकल फाइबर का घेरा मुझे जकड रहा है।  मेरे पैर हिल नहीं पा रहे हैं, मेरे हाथ बांध गए हैं।  कुछ तार जो बेतार रूप में हैं मेरे नाक के रास्‍ते विंड-पाइप में घुस गए हैं।  मेरे दिल में एक तार ने छेद कर दिया है और धमनियों से होकर तेज़ी से पूरे शरीर में फ़ैल रहा है ।  मैं जोर लगाता हूँ बचने के लिए।  मैं जितना जोर लगता हूँ उतना ही बंधता जा रहा हूँ।  इतना ही नहीं…… इन तारों के साथ साथ क्रिकेट की असंख्य गेंदे मेरे सामने तेज़ी से से बढ़ रही हैं , महात्मा का संगीत जोर जोर से मेरी कानो में बज रहा है , तरह तरह की गाड़ियां मुझे रौंदने आ रही हैं।  लग रहा है कि मुझमे कोई शक्ति शेष नहीं बची।  मैं अंतिम बार जोर लगता हूँ और बालकोनी से छलांग लगा देता हूँ।  जोर से धप्प की आवाज़ आती है।  पड़ोस में किसी की नींद खुली है इस आवाज़ से।  
      वह अपने विभिन्न ग्रुप्स में सन्देश देता है, "टर्मर्स फेल्ट ऐट फोर एएम" और टीवी खोलकर अपडेट्स का इंतजार करता है। 

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