शुक्रवार, 19 मई 2017

शहर का पुराना पेंटर


वह वर्षों से 
रंग रहा है 
इस शहर के घर
तब से जब यह शहर 
बस ही रहा था 
नयी कालोनियां बन रही थी 
खेतों को काट काट कर। 

उसने उजड़ते देखे हैं 
गेंहूं के हरे रंगो को 
बदलते देखे हैं धरती के माटी रंग को 
रेत के धूसर रंग में सनते हुए 

उसके पास कहानियां है 
घरो की, मकानों की, 
उनमे रहने वाले बच्चो की 
वह छज्जे को रंगने से पहले 
तोड़ता है घोसला 
और अपने कुरते के कोर से 
साफ़ करता है गीली आँखें 

उसने रंगे हैं 
सैकड़ो घर 
कोठियों से लेकर 
एक कमरे वाले मकान तक,
रंगने के बाद 
वह बीच घर में खड़े हो 
निहारता है उन्हें 
उसकी आँखों में उतरता है 
दीवारों की चमक एक पल के लिए 
फिर मेहनताना गिनते गिनते 
हो जाता है उसकी आँखों का रंग 
डार्क ब्लैक।   

फिर वह पीछे मुड कर नहीं देखता
अगली सुबह लेबर चौक पर मिलता है 
बाल्टी, कूंची लिए 
उस समय उसकी आँखों में होता है 
रोटी का सफ़ेद रंग
बादलो की तरह तैरते हुए।    

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