इस कायनात में
हर पल कितने ही लोग मरते हैं
जो मरते हैं
होते हैं किसी के पिता
होते हैं किसी की मां
होते हैं किसी के भाई/बहिन
किसी का बेटा भी हो सकता है वह
या बेटी ही
या वही किसी और ओहदे/पद/रिश्ते का हो सकता है
लेकिन जो मरता है
होता है कोई न कोई
यदि वह अनाम/अनजान भी हुआ तो क्या
होता है वह मनुष्य ही
फिर किसका शोक मनाया जाय
किसका शोक न मनाया जाय
यह तय करना मनुष्यता के बोध को कम करना है
और जन्म मृत्यु के बंधन से परे होना ही
प्राप्त करना है बुद्धत्व
यही कारण है कि
मैं हमेशा होता हूँ शोक में
किसी के जीवित रहते हुए भी
किसी के मृत्यु को प्राप्त करते हुए
क्योंकि हर पल मर रही है मनुष्यता !
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (25-07-2019) को "उम्मीद मत करना" (चर्चा अंक- 3407) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह और उसे कोई शोक नहीं होता है जो देवता हो चुका होता है और वो देवता हो चुका है।
जवाब देंहटाएंगज़ब की भावाभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएं.बेहतरीन सृजन आदरणीय
जवाब देंहटाएंसादर
लाजवाब सृजन...चिन्तन योग्य..
जवाब देंहटाएंवाह!!!
मार्मिक सत्य!
जवाब देंहटाएंसच है अपने लिए शोक मनाता है इंसान कि मेरा क्या होगा!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
बहुत सुंदर भावुक कविता।
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह ... लाजवाब और बहुत कुछ कहती हुयी ...
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