मैं पैदा हुआ बिहार में
मेरे पैदा होते ही
पिता को जाना पड़ा कमाने झारखंड
पीछे पीछे मैं भी पंहुचा
मैं जब बड़ा हुआ
आ गया झारखंड एक्सप्रेस में बैठ कर दिल्ली
दिल्ली में पकड़ी नौकरी
और दिल्ली की सीमा के बाहर उत्तर प्रदेश में
बनाया ठिकाना
अब न बिहार में वह छूटा हुआ गाँव मेरा है
न कोयला खादानो के बीच वे कालोनियां
दिल्ली तो होती है सरकारों की
और दिल्ली की सीमा पर खड़े उत्तरप्रदेश भी
कहाँ मानता है अपना
देश के भीतर ही मैं हूँ विस्थापित
शांतिकाल का यह विस्थापन कम पीड़ादायक नहीं होता
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 11 जुलाई 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहर कोई विस्थापित है अपनी धुरी से। सुन्दर।
जवाब देंहटाएंहम स्त्रियों से बेहतर कौन समझ सकता है
जवाब देंहटाएंविस्थापित होना अपनी धुरी से...
इसी आत्मिक विरसता का नाम है, 'ग्लोबलाइज़ेशन'! सुंदर अभिव्यक्ति!!!
जवाब देंहटाएंवाह!!बहुत खूब ! बडी़ मुश्किल होती है ,जब लोग पूछते हैं कहाँँ से हो ......जवाब देने में समय लग जाता है ओर जब कभी कहती हूँ भारतीय हूँ ,तो ऐसे देखते हैं मानो बहुत बडी़ गलती कर दी ।
जवाब देंहटाएंवाह!!!!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...