बुधवार, 30 जुलाई 2025

मृत्यु

 हे ईश्वर ! 

लौटा कर जा रहा हूँ 

तुम्हारा दिया सब कुछ 

मुझ पर कुछ उधार नहीं 

मैंने लौटा दिये हैं 

तुम्हारी सारी संपदाएँ 

धरती का टुकड़ा 

या हो अट्टालिकायेँ

सब छोड़ जा रहा हूँ ! 


किन्तु जो अर्जित किया 

मैंने ज्ञान 

ज्ञान से जो पाया प्रज्ञान 

जो मैंने किया प्रेम 

प्रेम के वे स्पर्श 

जिनसे सुबासित रही मेरी आत्मा 

और जब आत्मा 

नहीं मरती कभी, बस धारण करती है 

नया शरीर 

मैं भी अपनी चेतना के साथ 

धारण कर रहा हूँ नया शरीर 

लौटा कर तुम्हारा दिया सब कुछ ! 


मंगलवार, 29 जुलाई 2025

मृत्यु

 सब यथावत रहेगा

चिड़िया कुहू कुहू करेगी

सूरज अपनी किरणे लेकर आएगा

कनेर पर खिलेंगे पीले फूल

और उड़हुल खिलेगा लाल लाल

नदियों का पानी

उसी तरह बहता रहेगा

और चांद छोटा बड़ा होगा 

तिथि के हिसाब से

दिनों की गिनती से

कुछ भी रिक्त नहीं रहेगा

कहीं भी

कुछ भी ! 


व्यथा है तुम्हारा शोक ! 

मृत्यु

 तुमने कहा

जाओ

मैं चला गया

जैसे जाता है कोई

कभी नहीं लौटने के लिए ! 

शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

आदमी के हाथ

 जहां नहीं पहुंचे हैं 

आदमी के हाथ

वहां का आसमान

अब भी है साफ

वहां के जंगल

अब भी हैं घने

वहां की चिड़िया

अब भी है महफूज़! 



शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

कनेर सिरीज़

 कनेर - III


साथ जो 

समय के साथ 

गहरे होते जाएँ 

वही प्रेम है 


प्रेम को निभाए बिना 

नहीं जा सकता है उसे 

जिया ! 





जैसी भाषा थी


(समकालीन अमरीकी कवयित्री एंड्रिया रेक्सिलियस की कविता "The way language was"  का अनुवाद )  


(अनुवाद : अरुण चंद्र राय ) 

जिस दिन वन में हिरण मरा,
मैं अपने घर में ज़िंदा था ।

मैं टूटते हिमनदों के बर्फीले मैदान में भी ज़िंदा था 
जबकि चीख रहे थे गला फाड़ फाड़ कर 

चीर के दरख़्त। 

 
जिस दिन प्यारी छोटी चिड़िया रो रही थी 

सियार जंगलों  के आग से भयभीत होकर से भाग रहे थे 

उस दौरान भी मैं ज़िंदा था।  


मैं कहीं और जाकर बस जाना चाहता था 

और इसकी चिंता ही मेरा धर्म था।  


 यह पृथ्वी तब भी थी जब नहीं थे वृक्ष 

जब नहीं लगी थी जंगलों में आग  

तब मैं भी नहीं था । 


और जब हिरण  वनों में जल रहे 

अपने घर में मैं देख रहा हूँ  सपने।  


फिर पड़ा सूखा,आया अकाल 

पसर गया सन्नाटा चारो तरफ 

सेब की तरह लाल लपटें
घुस गई हैं मेरे  गले के भीतर 

और मैं फुफकार रहा हूँ 

जंगल के आग की तरह।