गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

अच्छा लगता है

अच्छा लगता है
जब सोमना अपने बेटे का नाम
अक्षत रखता है।
और अब उसकी बेटी लछमिनिया
आँगन वादी केंद्र पर
लक्ष्मी दीदी के नाम से जानी जाती है।

अच्छा लगता है कि
बेगार नहीं करता सोमना अब
और अपनी मजूरी के लिए
मेरे नानाजी की आँख से
आँख मिला लेता है।

रेडियो पर कमेंट्री सुनते
सोमना हांकता है ट्रक्टर
और शाम को टीवी पर
समाचार भी सुनता है।

आशंका से डरता हूँ
सोमना मंदिर- मस्जिद ना पहुंचे
ना किसी बाबा से मिले
किसी झंडे का पिट्ठू भी ना बन जाए।

सोमनाथ उर्फ़ सोमना
उसे देख कर अच्छा लगता है।

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

होली

हर दिन होली जल रही है
जलते अरमानों के संग
कैसी होली मानेगी उनकी
जिनके आँचल ना कोई उमगं

होली के रंग हैं फीके
उनसे पूछो जो खोये अपने
धुल धुसरित रंग हैं उनके
जिनकी आँखों के टूटे हैं सपने


लाल रंग लहू का होता
जा शरहद पर बहता है
नक्सालियों के खंजर से घायल
हरियाली कैसा जो बिंधता है

आसमान से गायब नीला
और समंदर भी है फीका
ज़हर झेलती नदियों से पूछो
क्यों उसके तट बाज़ार सजा

होली तो अब कमरों में बंद
कैसी चुनरी कैसी साड़ी
काम क्रोध मद के रंग से कैसे
खेले होली आज की नारी

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

हवा

मेरे सामने ही
कल
ए़क लालटेन बुझ गई
कैसे आत्माएं ए़क साथ
सुलग उठी
सिसक उठी
और
मैंने शोर सुना कि
प्रगतिवादी हवा
जोरों से बह रही है

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

मणि आर्डर स्पीड पोस्ट से जाता है

बाबूजी को
अब इंतजार नहीं रहता
मेरे मणि आर्डर का
क्योंकि
ख़त्म हो गया है
उस फार्म पर
सन्देश के लिए जगह !

इन दिनों
मैं नहीं लिखा करता
कि इस महीने कम पैसे भेज रहा हूँ
क्योंकि बाबू के स्कूल की फीस भरनी है
या फिर जीवन बीमा का प्रीमियम भरना है
बस टिक कर देता हूँ
शुभकामनाओं का कालम !

बाबूजी को पता लग जाया करता था
मेरी माली हालत का
मणि आर्डर फार्म पर लिखे सन्देश से

हाशिये के पार
धीरे धीरे चले जायंगे
ये सन्देश और
इन संदेशों को पढनेवाली संवेदनाएं

धीरे धीरे बाबूजी को
कम दिखाई देने लगा है
समझ भी कम आने लगा है
और मेरे आसपास भी
कम होने लगी है जगह
धीरे धीरे !

सुना है अब मणि आर्डर
स्पीड पोस्ट से जाता है !
(नोट: मणि आर्डर फॉर्म बदल गया है और वहां सन्देश लिखने वाली जगह के स्थान पर रेडीमेड ग्रीटिंग्स के कोलौम आ गए हैं ! इसी रेडीमेड ग्रीटिंग्स से उपजे मेरे भाव!)

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

मसखरे कहलाते हैं

अपने आंसू रोक कर जो औरों को हंसाते हैं
मसखरे कहलाते हैं

सच का साथ देने का जो हौसला दिखाते हैं
कटघरे लाये जाते हैं
जो चलते हैं हाथ में मशाल लेकर
सिरफिरे कहलाते हैं
अपने आंसू रोक कर जो औरों को हंसाते हैं
मसखरे कहलाते हैं


हो गए हैं जो उम्रे दराज
ना उनके कोई सहारे रह जाते हैं
जो करते हैं इंसानियत की बात
जमाने गुजरे कहे जाते हैं
अपने आंसू रोक कर जो औरों को हंसाते हैं
मसखरे कहलाते हैं


बच्चों के साथ समय गुजारने का वक्त है नहीं
वे ही आदमी बड़े कहे जाते हैं
ओढ़े जो रहते हैं हंसी का नकाब
असली चेहरे समझे जाते हैं
अपने आंसू रोक कर जो औरों को हंसाते हैं
मसखरे कहलाते हैं


भीड़ है इस दुनिया में बहुत लेकिन
बहुत कम अपने कहे जाते हैं
हर हाल में जो रहे आपके पास वे ही
लोग प्यारे कहे जाते हैं
अपने आंसू रोक कर जो औरों को हंसाते हैं
मसखरे कहलाते हैं

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

आग को पकने दीजिये

ज्वालामुखी को सुलगने दीजिये
आग को पकने दीजिये

बर्फ पिघलेगी तो नदी लहराएगी जरुर
इसलिए भी कुछ बर्फ जमने दीजिये
आग को पकने दीजिये

हवा तेज होगी तो बीज उड़ा ले जाएगी
नए दौर के लिए आंधी आने दीजिये
आग को पकने दीजिये

फल लगेंगे तो चिड़िया आएँगी जरुर
यही सोच कर पेड़ों को बढ़ने दीजिये
आग को पकने दीजिये


डूबने लगेंगे जब वो तैरना सीख जायेंगे
इसी बहाने पानी को बढ़ने दीजिये
आग को पकने दीजिये



मुट्ठी भीचेंगे जब फाकाकशी लम्बी होगी
इसी इंतज़ार में रोटी छिनने दीजिये
आग को पकने दीजिये


दर्शन होते हैं उनके जो लहरों में उतरे नहीं कभी
ए़क बार उन्हें थपेड़ों से लड़ने दीजिये
आग को पकने दीजिये


सांप है तो काटेगा ए़क दिन जरुर
उनको आस्तीन में सांप पालने दीजिये
आग को पकने दीजिये

खाव्ब हैं जिनके आँखों में पूरे होंगे
सपनों को आँखों में सजने दीजिये
आग को पकने दीजिये






शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

चाँद पर पहुचना है तो हौसला कीजिये

चाँद पर पहुचना है तो हौसला कीजिये
किस तरफ जायेंगे आप फैसला कीजिये

मंजिल मुश्किल है सफ़र लम्बा
पहुचना है तो खुद को काफिला कीजिये

चुप हैं लोग डर कर हादसों से
कहीं चिंगारी दिखे तो हवा कीजिये

बाज़ार सजा है हर चीज़ का
कहीं आदमी मिले तो खरीदा कीजिये

रौशनी भरमायेगी बहुत इस दुनिया में
कहीं जलता दिया मिले तो दुआ कीजिये

प्यार मुश्किल है इस दौर में
बक्सिमत कहीं मिल जाए तो वफ़ा कीजिये

चाँद पर पहुचना है तो हौसला कीजिये
किस तरफ जायेंगे आप फैसला कीजिये

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

जब तक


जीवन की घडी की कमानी


संपीडित रहती है


चलता रहता हूँ ,मैं निरंतर

सांसारिक चक्रव्यूह के

वृताकार जर्जरित परिवेश में ।

होता रहता हूँ मैं अग्रसर निरंतर !



मेरे गम के साये में


बना लेते हो अपनी पहचान तुम


चकाचौंध के जाते हो अपना जीवन


और ढूंढता रहता हूँ मैं


डूबा हुआ खुद के विलोम


अँधेरे में


अपने महत्वहीन होते जा रहे


अस्तित्व को ।



लेकिन बस पाता हूँ


अपनी धडकनों की चीखती हताश गूँज

और बोलता है मेरे भीतर का सन्नाटा !


पुनः कस देते हो मेरी कमानी तुम


और विवश हो करने लगता हूँ


टिक ..... टिक...... टिक.....


प्रतिक्षण मैं .

हिसाब रख ना सका

करवटों में गुजार दी उमर
एक उलझन भी सुलझा ना सका
खोने पाने की जद्दोजहद में
वरसों का हिसाब रख ना सका

पत्ते गिनते रहे पतझड़ के
बदलते मौसम को परख ना सका
चाँद बदलता है हर रोज़
दिल को ये समझा ना सका

माथे पर सिलवटें आयी हैं उभर
हाथ मलता रहा खबर कर ना सका
पौधे कब बन गए पेड़
माली को पता लग ना सका

हम लौट आयेंगे जल्द ही
उनसे इतना इन्तजार हो ना सका
दीवारें उग गई हैं दिलों के बीच
बच्चों को ये सीख दे ना सका

करवटों में गुजार दी उमर
एक उलझन भी सुलझा ना सका