गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

जब तक


जीवन की घडी की कमानी


संपीडित रहती है


चलता रहता हूँ ,मैं निरंतर

सांसारिक चक्रव्यूह के

वृताकार जर्जरित परिवेश में ।

होता रहता हूँ मैं अग्रसर निरंतर !



मेरे गम के साये में


बना लेते हो अपनी पहचान तुम


चकाचौंध के जाते हो अपना जीवन


और ढूंढता रहता हूँ मैं


डूबा हुआ खुद के विलोम


अँधेरे में


अपने महत्वहीन होते जा रहे


अस्तित्व को ।



लेकिन बस पाता हूँ


अपनी धडकनों की चीखती हताश गूँज

और बोलता है मेरे भीतर का सन्नाटा !


पुनः कस देते हो मेरी कमानी तुम


और विवश हो करने लगता हूँ


टिक ..... टिक...... टिक.....


प्रतिक्षण मैं .

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