सोमवार, 10 अक्टूबर 2011

गए जो हो परदेस

(गाँव से दिल्ली आये ग्यारह साल हो गए. गाँव से जुड़ा रहा गहरे से. लेकिन कभी दशहरा  पर गाँव नहीं जा पाया था इस दौरान. इस बार गया था. पूरे दस दिनों के लिए. त्यौहार के मौके पर पति के परदेश से लौटने पर प्रतीक्षारत पत्नियों की  आँखों में चमक को देख उनकी उदासी का अंदाज़ा भी लगा. आज भी हजारों स्त्रियाँ अकेली होती हैं पति के परदेस  जाने के बाद. शायद हम समझ ना सकें उन्हें. वह दर्द नहीं टीस होती है जिसमे निकल  जाती है पूरी उम्र . उन्ही स्त्रियों को समर्पित ये क्षणिकाएं ) 

१. 

भीत
बारहों महीने
गीली रहती है
जब से तुम गए हो
परदेस 

२.

चूल्हा 
अब अकेला
नहीं जलता 
साथ देती हूं मैं
तुम्हारे जाने के बाद 

३.

ओसारे पर
धूप चली जाती है
करके इन्तजार
जैसे मैं 

४.

गाय हो गई है
गाभिन 
ताने मैं सुन रही हूं 
क्या करू  इर्ष्या 
अब इसी से 

५. 

तुम जो पहिरा के गए थे
हरी वाली चूड़ी 
अब भी वही चल रही है
कलाई में 
रहते थे तो 
कितनी टूटती थी ये 
मजबूत है 
हम दोनों  का जियरा .

६.
पिछली चिट्ठी में
जिक्र था सबका
बस मैं ही तो 
रह गई थी
फिर भी है
अगली चिट्ठी का 
इन्तजार 

40 टिप्‍पणियां:

  1. गाय हो गई है
    गाभिन
    ताने मैं सुन रही हूं
    क्या करू इर्ष्या
    अब इसी से


    भावपूर्ण प्रस्तुति ||
    बहुत सुन्दर |
    हमारी बधाई स्वीकारें ||
    http://dcgpthravikar.blogspot.com/2011/10/blog-post_10.html
    http://neemnimbouri.blogspot.com/2011/10/blog-post_110.html

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  2. बहुत ही बढ़िया सर!

    कल 12/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  3. कितना गहन विश्लेषण किया है……………विरह और उस दर्द का बहुत ही खूबसूरती से चित्रण किया है……………गागर मे सागर भरा है।

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  4. बहुत सारगर्भित प्रस्तुति...धन्यवाद...

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  5. असरदार क्षणिकाएं !शुभकामनायें आपको !

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  6. भावमय करते शब्‍दों का संगम ।

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  7. विरह की इस व्यथा-कथा के भावों ने अभिभूत कर दिया

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  8. चूल्हा
    अब अकेला
    नहीं जलता
    साथ देती हूं मैं
    तुम्हारे जाने के बाद

    यह एक छोटी-सी कविता पूरे उपन्यास का अहसास करा गई !
    लाजवाब, आप की सोच को सलाम !

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  9. बहुत ही सुन्दर और सार्थक क्षनिकाएं |

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  10. चूल्हा
    अब अकेला
    नहीं जलता
    साथ देती हूं मैं
    तुम्हारे जाने के बाद

    क्या बात है...

    सारी की सारी क्षणिकाएं बहुत सुन्दर बन पड़ी हैं...गहरे अर्थ लिए

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  11. बहुत सुंदर ....


    फिर भी है
    अगली चिट्ठी का
    इन्तजार

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  12. वाह ये क्षणिकाएं आप ने वाकई डूब कर लिखी हैं। बधाई।

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  13. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  14. चौथी और पांचवीं क्षणिका को छोड़कर शेष प्रभावी हैं। इन दोनों में भावों बहुत निम्‍नस्‍तर के हैं। इन दोनों के होने से बाकी का प्रभाव भी कम हो रहा है। सच तो यह है कि इनके मोह से आपको बचना चाहिए।

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  15. ग्रामीण स्‍त्री के एकाकी जीवन की दुरूह परिस्थितियों का सच्‍चा लेखा-जोखा सामने रखता है ।

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  16. समझ की ,सरोकार की, उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ...... शुक्रिया जी ,

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  17. सुभानाल्लाह.......सारी खूबसूरत हैं|

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  18. shaandaar birah katha..lekin prastuti itni behtarin ki taarif ke shabd nahi..behtarin soch..har kadi sochne ke liye bibash karti hai..har kadi ka ant wah karne ko vivash karti hai..sadar badhayee

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  19. kahne ko kshanika lekin lamba asar chhod gayee...badhai sweekaren.

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  20. चूल्हा
    अब अकेला
    नहीं जलता....

    सचमुच....
    विरह को शिद्दत से अभिव्यक्त करती हैं
    आपकी तपती क्षणिकाएं....
    सादर...

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  21. विरह के इतने रूप देखकर तो विरह से प्रीत होने लगी!! विरहिणी के रूप सौंदर्य को देख जी में आता है रोके रखा जाए उस निर्मोही प्रियतम को.. पांचवां मुक्तक तो गज़ब का है..शोक और श्रृंगार का मेल इतना सुन्दर भी हो सकता है यहाँ दिखाई दिया... मगर उसके भाव भी उस विरहिणी को सुनाते तो अच्छा होता:
    दिल में उठी यह टीस,
    तुम्हारे विरह से नहीं उपजी थी,
    चुभ गया था जेब में पड़ा
    तुम्हारी टूटी हुई चूड़ी का टुकड़ा!!
    कमाल की प्रस्तुति है अरुण जी!! सीधा दिल में उतर जाने वाली!!

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  22. ऐसा होता है तो कारण है सरकार। कोई भला क्यों जाता है परदेस?…

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  23. चूल्हा
    अब अकेला
    नहीं जलता
    साथ देती हूं मैं
    तुम्हारे जाने के बाद...

    तुम जो पहिरा के गए थे
    हरी वाली चूड़ी
    अब भी वही चल रही है
    कलाई में
    रहते थे तो
    कितनी टूटती थी ये
    मजबूत है
    हम दोनों का जियरा .
    speechless... .. vireh ki vedna ...ufffffffff

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  24. बहुत ही भावपूर्ण क्षणिकाएं!,बधाई !

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  25. पिछली चिट्ठी में
    जिक्र था सबका
    बस मैं ही तो
    रह गई थी
    फिर भी है
    अगली चिट्ठी का
    इन्तजार

    राय जी, आपने जीवन के सही संदर्भों एक आत्मीय तथ्य को प्रकाश में लाया है । मैं भी आपके विचारों से सहमत हूँ । उन स्त्रियों के उपर जो बीतती है उसे तो वे ही जानती हैं ।
    भोजपुरी में एक गाना है -
    जाके परदेशवा में भुलाई गईल राजा जी
    सपना के झुलुआ झुलाई गईल राजा जी ।
    इसे सुनकर मन में कितना गहरा विषाद भर जाता है । मेरे पोस्ट " मुझे मेरे गांव में गांव का निशाँ नही मिलता" पर भी कभी समय मिले तो आकर मेरा भी मनोबल बढाएं । धन्यवाद ।

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  26. भाव प्रभावशाली रूप से अभिव्यक्त हुए हैं इन क्षणिकाओं में!

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  27. अरुण चन्द्र रॉय जी
    नमस्कार !

    कमाल की क्षणिकाएं हैं … सचमुच !
    हर क्षणिका को उद्धृत समझें …
    :)

    आप जैसे मेरे पसंदीदा रचनाकार की इतनी ख़ूबसूरत रचनाएं पढ़ने विलंब से पहुंच पाया हूं … इतना-सा मलाल है … बहुत मन से मुबारकबाद है …


    … और त्यौंहारों के इस सीजन सहित
    आपको सपरिवार
    दीपावली की अग्रिम बधाइयां !
    शुभकामनाएं !
    मंगलकामनाएं !

    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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  28. सारी की सारी क्षणिकाएं बहुत सुन्दर....अरुण जी

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  29. पिछली चिट्ठी में
    जिक्र था सबका
    बस मैं ही तो
    रह गई थी
    फिर भी है
    अगली चिट्ठी का
    इन्तजार.

    सच कह रहे है अरुण जी. उन महिलाओं का दर्द को आपने क्षणिकाओं के माध्यम बखूबी प्रस्तुत किया है. बधाई.

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  30. भिगो गई अंदर तक ... दर्द को शब्द दे दिए हैं आपने ...

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  31. बहुत सुन्दर विरह वर्णन किया है आपने.
    हर शब्द विरह में डूबा हृदयस्पर्शी है,
    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

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