(गाँव से दिल्ली आये ग्यारह साल हो गए. गाँव से जुड़ा रहा गहरे से. लेकिन कभी दशहरा पर गाँव नहीं जा पाया था इस दौरान. इस बार गया था. पूरे दस दिनों के लिए. त्यौहार के मौके पर पति के परदेश से लौटने पर प्रतीक्षारत पत्नियों की आँखों में चमक को देख उनकी उदासी का अंदाज़ा भी लगा. आज भी हजारों स्त्रियाँ अकेली होती हैं पति के परदेस जाने के बाद. शायद हम समझ ना सकें उन्हें. वह दर्द नहीं टीस होती है जिसमे निकल जाती है पूरी उम्र . उन्ही स्त्रियों को समर्पित ये क्षणिकाएं )
१.
भीत
बारहों महीने
गीली रहती है
जब से तुम गए हो
परदेस
२.
चूल्हा
अब अकेला
नहीं जलता
साथ देती हूं मैं
तुम्हारे जाने के बाद
३.
ओसारे पर
धूप चली जाती है
करके इन्तजार
जैसे मैं
४.
गाय हो गई है
गाभिन
ताने मैं सुन रही हूं
क्या करू इर्ष्या
अब इसी से
५.
तुम जो पहिरा के गए थे
हरी वाली चूड़ी
अब भी वही चल रही है
कलाई में
रहते थे तो
कितनी टूटती थी ये
मजबूत है
हम दोनों का जियरा .
६.
पिछली चिट्ठी में
जिक्र था सबका
बस मैं ही तो
रह गई थी
फिर भी है
अगली चिट्ठी का
इन्तजार
हृदय भिगोती विरह-कथा।
जवाब देंहटाएंखुबसूरत....
जवाब देंहटाएंkisi ke piyaa kabhi pardes naa jaaye :-(
जवाब देंहटाएंगाय हो गई है
जवाब देंहटाएंगाभिन
ताने मैं सुन रही हूं
क्या करू इर्ष्या
अब इसी से
भावपूर्ण प्रस्तुति ||
बहुत सुन्दर |
हमारी बधाई स्वीकारें ||
http://dcgpthravikar.blogspot.com/2011/10/blog-post_10.html
http://neemnimbouri.blogspot.com/2011/10/blog-post_110.html
बहुत ही बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंकल 12/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
कितना गहन विश्लेषण किया है……………विरह और उस दर्द का बहुत ही खूबसूरती से चित्रण किया है……………गागर मे सागर भरा है।
जवाब देंहटाएंबहुत सारगर्भित प्रस्तुति...धन्यवाद...
जवाब देंहटाएंअसरदार क्षणिकाएं !शुभकामनायें आपको !
जवाब देंहटाएंभावमय करते शब्दों का संगम ।
जवाब देंहटाएंविरह की इस व्यथा-कथा के भावों ने अभिभूत कर दिया
जवाब देंहटाएंbeintaha khoobusurat zazbaat!!!!
जवाब देंहटाएंbahut khoobsurat andaz hai likhne ka......man tak pahunch gaya.
जवाब देंहटाएंचूल्हा
जवाब देंहटाएंअब अकेला
नहीं जलता
साथ देती हूं मैं
तुम्हारे जाने के बाद
यह एक छोटी-सी कविता पूरे उपन्यास का अहसास करा गई !
लाजवाब, आप की सोच को सलाम !
बहुत ही सुन्दर और सार्थक क्षनिकाएं |
जवाब देंहटाएंचूल्हा
जवाब देंहटाएंअब अकेला
नहीं जलता
साथ देती हूं मैं
तुम्हारे जाने के बाद
क्या बात है...
सारी की सारी क्षणिकाएं बहुत सुन्दर बन पड़ी हैं...गहरे अर्थ लिए
बहुत सुंदर ....
जवाब देंहटाएंफिर भी है
अगली चिट्ठी का
इन्तजार
वाह ये क्षणिकाएं आप ने वाकई डूब कर लिखी हैं। बधाई।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंचौथी और पांचवीं क्षणिका को छोड़कर शेष प्रभावी हैं। इन दोनों में भावों बहुत निम्नस्तर के हैं। इन दोनों के होने से बाकी का प्रभाव भी कम हो रहा है। सच तो यह है कि इनके मोह से आपको बचना चाहिए।
जवाब देंहटाएंग्रामीण स्त्री के एकाकी जीवन की दुरूह परिस्थितियों का सच्चा लेखा-जोखा सामने रखता है ।
जवाब देंहटाएंसमझ की ,सरोकार की, उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ...... शुक्रिया जी ,
जवाब देंहटाएंexcellent....
जवाब देंहटाएंbeautifullll..................................
जवाब देंहटाएंसुभानाल्लाह.......सारी खूबसूरत हैं|
जवाब देंहटाएंshaandaar birah katha..lekin prastuti itni behtarin ki taarif ke shabd nahi..behtarin soch..har kadi sochne ke liye bibash karti hai..har kadi ka ant wah karne ko vivash karti hai..sadar badhayee
जवाब देंहटाएंkahne ko kshanika lekin lamba asar chhod gayee...badhai sweekaren.
जवाब देंहटाएंBahut hin sundar rachna. jo gramin stree ke virah vedna ko achhi tarah se vyakt karne mein sakshm hui hai.
जवाब देंहटाएंचूल्हा
जवाब देंहटाएंअब अकेला
नहीं जलता....
सचमुच....
विरह को शिद्दत से अभिव्यक्त करती हैं
आपकी तपती क्षणिकाएं....
सादर...
विरह के इतने रूप देखकर तो विरह से प्रीत होने लगी!! विरहिणी के रूप सौंदर्य को देख जी में आता है रोके रखा जाए उस निर्मोही प्रियतम को.. पांचवां मुक्तक तो गज़ब का है..शोक और श्रृंगार का मेल इतना सुन्दर भी हो सकता है यहाँ दिखाई दिया... मगर उसके भाव भी उस विरहिणी को सुनाते तो अच्छा होता:
जवाब देंहटाएंदिल में उठी यह टीस,
तुम्हारे विरह से नहीं उपजी थी,
चुभ गया था जेब में पड़ा
तुम्हारी टूटी हुई चूड़ी का टुकड़ा!!
कमाल की प्रस्तुति है अरुण जी!! सीधा दिल में उतर जाने वाली!!
ऐसा होता है तो कारण है सरकार। कोई भला क्यों जाता है परदेस?…
जवाब देंहटाएंAwesome !
जवाब देंहटाएंचूल्हा
जवाब देंहटाएंअब अकेला
नहीं जलता
साथ देती हूं मैं
तुम्हारे जाने के बाद...
तुम जो पहिरा के गए थे
हरी वाली चूड़ी
अब भी वही चल रही है
कलाई में
रहते थे तो
कितनी टूटती थी ये
मजबूत है
हम दोनों का जियरा .
speechless... .. vireh ki vedna ...ufffffffff
बहुत ही भावपूर्ण क्षणिकाएं!,बधाई !
जवाब देंहटाएंपिछली चिट्ठी में
जवाब देंहटाएंजिक्र था सबका
बस मैं ही तो
रह गई थी
फिर भी है
अगली चिट्ठी का
इन्तजार
राय जी, आपने जीवन के सही संदर्भों एक आत्मीय तथ्य को प्रकाश में लाया है । मैं भी आपके विचारों से सहमत हूँ । उन स्त्रियों के उपर जो बीतती है उसे तो वे ही जानती हैं ।
भोजपुरी में एक गाना है -
जाके परदेशवा में भुलाई गईल राजा जी
सपना के झुलुआ झुलाई गईल राजा जी ।
इसे सुनकर मन में कितना गहरा विषाद भर जाता है । मेरे पोस्ट " मुझे मेरे गांव में गांव का निशाँ नही मिलता" पर भी कभी समय मिले तो आकर मेरा भी मनोबल बढाएं । धन्यवाद ।
भाव प्रभावशाली रूप से अभिव्यक्त हुए हैं इन क्षणिकाओं में!
जवाब देंहटाएं♥
जवाब देंहटाएंअरुण चन्द्र रॉय जी
नमस्कार !
कमाल की क्षणिकाएं हैं … सचमुच !
हर क्षणिका को उद्धृत समझें …
:)
आप जैसे मेरे पसंदीदा रचनाकार की इतनी ख़ूबसूरत रचनाएं पढ़ने विलंब से पहुंच पाया हूं … इतना-सा मलाल है … बहुत मन से मुबारकबाद है …
… और त्यौंहारों के इस सीजन सहित
आपको सपरिवार
दीपावली की अग्रिम बधाइयां !
शुभकामनाएं !
मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
सारी की सारी क्षणिकाएं बहुत सुन्दर....अरुण जी
जवाब देंहटाएंपिछली चिट्ठी में
जवाब देंहटाएंजिक्र था सबका
बस मैं ही तो
रह गई थी
फिर भी है
अगली चिट्ठी का
इन्तजार.
सच कह रहे है अरुण जी. उन महिलाओं का दर्द को आपने क्षणिकाओं के माध्यम बखूबी प्रस्तुत किया है. बधाई.
भिगो गई अंदर तक ... दर्द को शब्द दे दिए हैं आपने ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर विरह वर्णन किया है आपने.
जवाब देंहटाएंहर शब्द विरह में डूबा हृदयस्पर्शी है,
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.