एक छोटी नदी
बहती थी मेरे गाँव के पास से
कई नाम थे उसके
मेरे गाँव में आने से पहले
कमला थी वह
मेरे गाँव से गुज़र जाने के बाद
बलान हो जाती थी
कोसी में मिलने के समय उसका नाम होता था
करेह
इस नदी में चलती थी नाव
नहाती थी भैंसे
विसर्जित होती थी प्रतिमाएं
फेंके जाते थे जाल मछलियों के लिए
और पुल से कूद जाती थीं लडकियां कभी कभी
जो मिल जाया करती थी गंगा मैया से
बूढ़ी औरते इस छोटी नदी को समझती थी
सिमरिया वाली गंगा
और पुल से फेंकती थी सिक्के
पहले पांच के, दस के, बीस पैसो के
फिर चवन्नी, अठन्नी,
और इन दिनों फेंकती हैं
रूपये, दो रूपये और कभी कभी पांच रूपये के सिक्के भी
मन ही मन बुदबुदाती हुई कुछ
मैं बचपन से सोचता रहा
नदी कैसे बनती है
कैसे बहती है
कैसे अप ने पेट मे रखती है
मछलियाँ, कूदी हुई लड़कियों के राज़
और पुल से फेंके गये सिक्के
प्रार्थनाओं के संग
नदी भी तो माँ होती है ... समेत लेती है पूरा अंचल सबके सपने ...
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद आपको दुबारा पढ़ा अरुण जी ... मजा अ गया ...
लाजवाब :)
जवाब देंहटाएंवाह...।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी गवेषणा है।
आपकी कविताओं के भाव हमेशा कुछ ना कुछ सोचने को मजबूर कर ही देते हैं... आज भी वही किया..
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