धीरे धीरे
कम हो रहे हैं
बसंत के दिन।
धीरे धीरे
कम हो रहे हैं
सर्दियों के दिन ।
धीरे धीरे
कम हो रहे हैं
बरसात के दिन।
धीरे धीरे
गरम होकर धरती
उबल रही है
अधिक दिनों तक ।
वैसे कम तो हो रहे हैं
बरसात के दिन
लेकिन बरस रहे हैं बादल
फट फट कर
नदियां तोड़ रही हैं
किनारों की मर्यादा
बांध का सब्र
दिनों दिन हो रहा है ढीला
पहाड़ों की तरह ।
जितनी भी कोशिश करते हैं हम
उतनी ही अधिक बिगड़ रहा है
मौसम का मिजाज
बढ़ रही है
धरती की खीझ।
एक दिन आयेगा ऐसा भी
जब एक ही मौसम हुआ करेगा
गर्मी, गर्मी और गर्मी
तब फूल खिलते ही मुरझाया करेंगे
प्रेम के मौसम का इंतजार भी
हो जायेगा खत्म
जैसे धीरे धीरे खत्म हो रहा है बसंत।।
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जवाब देंहटाएंप्रेम के मौसम का इंतजार
जवाब देंहटाएंकभी न हो खत्म
आँखों से बसंत के स्वप्न
कभी न झरे
आखिर सृष्टि का आधार है प्रेम...।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १८ जनवरी २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
धन्यवाद श्वेता जी मेरी कविता को अपने लिंक में शामिल करने के लिए ।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंआपके एक "वाह " से मेरी कविता सार्थक हो जाती है सर ।
हटाएंप्रभावशाली रचना
जवाब देंहटाएंकाश ! ऐसा कभी न हो, कवि किसकी सुंदरता के गीत गायेंगे तब
धन्यवाद अनीता जी
हटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंसबक सिखाती सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंइस बार सर्दी हर बार से कम पड़ी।