गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

मायके लौटी स्त्री

 

मायके लौटी स्त्री

फिर से बच्ची बन जाती है

लौट जाती है वह 

गुड़ियों के खेल में 

दो चोटियों और 

उनमें लगे लाल रिबन के फूल में


वह उचक उचक कर दौड़ती है

जैसे पैरों में लग गए हो पर

 घर के दीवारों को छू कर 

अपने अस्तित्व का करती है एहसास

मायके लौटी स्त्री। 


मायके लौटी स्त्री

वह सब खा लेना चाहती है

जिनका स्वाद भूल चुकी थी

जीवन की आपाधापी में 

घूम आती है अड़ोस पड़ोस

ढूंढ आती है

पुराने लोग, सखी सहेली

अनायास ही मुस्कुरा उठती है

मायके लौटी स्त्री। 


मायके लौटी स्त्री

दरअसल मायके नहीं आती

बल्कि समय का पहिए को रोककर वह

अपने अतीत को जी लेती है

फिर से एक बार। 


मायके लौटी स्त्री

भूल जाती है 

राग द्वेष

दुख सुख

क्लेश कांत

पानी हो जाती है

किसी नदी की । 


हे ईश्वर ! 

छीन लेना 

फूलों से रंग और गंध

लेकिन मत छीनना कभी 

किसी स्त्री से उसका मायका।



4 टिप्‍पणियां:

  1. स्त्री का मायका उसके पूरे जीवन में सबसे बेशकीमती
    धरोहर होती है जो उसका होकर भी कभी उसके लिए
    नहीं होता...।
    बेहद भावपूर्ण अभिव्यक्ति सर।
    सादर।
    -----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ७ जनवरी २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. सारगर्भित एवं मार्मिक पंक्तियों से सजी संवेदनशील रचना ...

    " हे ईश्वर !

    छीन लेना

    फूलों से रंग और गंध

    लेकिन मत छीनना कभी

    किसी स्त्री से उसका मायका। "

    जवाब देंहटाएं