शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

किताबों की तरह

किताबों कीतरह
पढना चाहता हूँ तुम्हें
पन्ना पन्ना !
समझना चाहता हूँ तुम्हें
इस तरह कि
किसी और ने ना समझा हो तुम्हें ।
तुम्हें पढ़ कर कुछ रेखांकित करना चाहता हूँ
जैसे तुम्हारी उन्मुक्त हंसी...
तुम्हारे सपने
तुम्हारे पंख
क्षितिज पर जो टिकी हैं तुम्हारी नज़रें ।
तुम्हारी उन्मुक्त हंसी में
जी भरकर जी लेना चाहता हूँ
अपनी सारी जिंदगी ।

किताबों ने लाया है
क्रांति कैसे बार ।
तल्बारों से भी भारी पड़े हैं किताब कई बार
और जन्म दिया है कई वादों को समय समय पर
पर इस बार नहीं चाहता कि बने कोई वाद।

किताब इक किताब रहे
और रहे बस मेरे लिए !

3 टिप्‍पणियां:

  1. तुम्हारी उन्मुक्त हंसी में
    जी भरकर जी लेना चाहता हूँ
    अपनी सारी जिंदगी ....
    नहीं चाहता इस बार और कोई वाद ...

    बहुत सुन्दर कविता .....
    नव वर्ष की बहुत शुभकामनायें ....!!

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  2. बहुत ही सुन्दर रचना!!


    वर्ष २०१० मे हर माह एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाने का संकल्प लें और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।

    - यही हिंदी चिट्ठाजगत और हिन्दी की सच्ची सेवा है।-

    नववर्ष की बहुत बधाई एवं अनेक शुभकामनाएँ!

    समीर लाल

    जवाब देंहटाएं
  3. किताबों कीतरह
    पढना चाहता हूँ तुम्हें
    पन्ना पन्ना !
    समझना चाहता हूँ तुम्हें
    इस तरह कि
    किसी और ने ना समझा हो तुम्हें ।
    तुम्हें पढ़ कर कुछ रेखांकित करना चाहता हूँ
    जैसे तुम्हारी उन्मुक्त हंसी...
    तुम्हारे सपने
    तुम्हारे पंख
    क्षितिज पर जो टिकी हैं तुम्हारी नज़रें ।
    ...................
    सुभानल्लाह

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