विज्ञापन के प्रभाव से
जो आती है
छद्म मुस्कान
मासूम बच्चों के चेहरे पर
नहीं खोना चाहती हैं माएं
बनाती हैं संतुलन
बजट और बाज़ार के बीच
रैपर के मनोविज्ञान की
अदृश्य किन्तु मज़बूत डोरी से
मध्य वर्ग का
मध्यम मार्ग अपनाती हुई
कई माएं
खरीद लाती हैं कभी कभी
ब्रांडेड महंगी चीज़ें
जैसे बिस्कुट, खाद्य सामग्रियां
चमकीले रैपरों में
जाकर बाहर अपने बजट से
संभाल कर रखती हैं
उन रैपरों को
महीनों तक
क्योंकि फिर से
भरना होता है उनमें
तथाकथित लोकल वस्तुएं
और लडती हैं
बाज़ार से
पूरी चालाकी से
रैपर के मनोविज्ञान से
कई बार हारता है बाज़ार
क्योंकि माएं
जानती हैं अब भी
अपने बच्चों का मनोविज्ञान
जो आती है
छद्म मुस्कान
मासूम बच्चों के चेहरे पर
नहीं खोना चाहती हैं माएं
बनाती हैं संतुलन
बजट और बाज़ार के बीच
रैपर के मनोविज्ञान की
अदृश्य किन्तु मज़बूत डोरी से
मध्य वर्ग का
मध्यम मार्ग अपनाती हुई
कई माएं
खरीद लाती हैं कभी कभी
ब्रांडेड महंगी चीज़ें
जैसे बिस्कुट, खाद्य सामग्रियां
चमकीले रैपरों में
जाकर बाहर अपने बजट से
संभाल कर रखती हैं
उन रैपरों को
महीनों तक
क्योंकि फिर से
भरना होता है उनमें
तथाकथित लोकल वस्तुएं
और लडती हैं
बाज़ार से
पूरी चालाकी से
रैपर के मनोविज्ञान से
कई बार हारता है बाज़ार
क्योंकि माएं
जानती हैं अब भी
अपने बच्चों का मनोविज्ञान
क्योंकि माएं
जवाब देंहटाएंजानती हैं अब भी
अपने बच्चों का मनोविज्ञान ...
बेहतरीन प्रस्तुति।
.
रैपर के मनोविज्ञान से
जवाब देंहटाएंकई बार हारता है बाज़ार
क्योंकि माएं
जानती हैं अब भी
अपने बच्चों का मनोविज्ञान
या शायद मजबूरन बाजार और बच्चों के मनोविज्ञान से समझौते करने पड़ते हैं .. शायद
क्योंकि माएं
जवाब देंहटाएंजानती हैं अब भी
अपने बच्चों का मनोविज्ञान
maayen to mayen
yahan padh kar lag raha hai
papa ko bhi pata hai...:D
bahut khub sir!! aapki koi tulna nahi...
BAHUT KHOOB ARUN JI.....AAPKI KAVITAO KI BAAT HI NIRALI HOTI HAI.
जवाब देंहटाएंEKDUM ALAG VISYA PAR
..............BAHUT KHOOB..SIR JI.
both subject and poem is very good.
जवाब देंहटाएंअरुण बाबू! आज बस
जवाब देंहटाएं:-)
बडा गहरा चिन्तन किया है…………………क्या किया जाये कभी कभी बच्चो कि जिद पूरी करने के लिये उन्हे पानी मे भी चांद दिखाना पड्ता है।
जवाब देंहटाएं• इस कविता में बाज़ारवाद और वैश्वीकरण के इस दौर में अधुनिकता और प्रगतिशीलता की नकल और चकाचौंध में किस तरह हमारी ज़िन्दगी घुट रही है प्रभावित हो रही है, उसे आपने दक्षता के साथ रेखांकित किया है। बिल्कुल नए सोच और नए सवालों के साथ समाज की मौज़ूदा जटिलता को उजागर कर आपने सोचने पर विवश कर दिया है।
जवाब देंहटाएंबहुत से सीख लिया करते हैं मां से रैपर का मनोविज्ञान.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सूक्ष्म अवलोकन, उतना ही सुन्दर प्रस्तुतीकरण।
जवाब देंहटाएंअरुण जी बहुत अच्छी प्रस्तुति ले कर आये हैं आप.इसे पढ़ कर मुझे याद आया की मैंने एक बार मेरी IGNOU की student को रिसर्च के लिए यही टोपिक दिया था "Effect of media on eating habits of adolscents from middle income group" " Nutrition & health education" के paper में
जवाब देंहटाएंअरुण , लाजवाब कर देते हो यार तुम |
जवाब देंहटाएंgahre bhavarth se saji sundar kavita badhai bade bhai wish you a happy new year
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ...नया आइडिया ! बधाई
जवाब देंहटाएंबड़ी सूक्षमता से माँ की कशमकश और अपने बच्चे के चहरे पर मुस्कान देखने की कोशिश को बयाँ किया है ...
जवाब देंहटाएंबढ़िया अभिव्यक्ति
मां और बच्चे के बीच जो एक bond होता है और जो उन का मनोविज्ञान होता है उस की बहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति है
जवाब देंहटाएंरैपर के मनोविज्ञान से
जवाब देंहटाएंकई बार हारता है बाज़ार
क्योंकि माएं
जानती हैं अब भी
अपने बच्चों का मनोविज्ञान
sukshm adhyayan
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसंभाल कर रखती हैं
जवाब देंहटाएंउन रैपरों को
महीनों तक
क्योंकि फिर से
भरना होता है उनमें
तथाकथित लोकल वस्तुएं
और लडती हैं
बाज़ार से
पूरी चालाकी से
इन पंक्तियों में दिखती है माँ की संवेदना,बच्चों से लगाव और घरेलू बजट से जूझते रहने की लगातार कोशिश भी. good communication.
मॉं ने कोशिश की
जवाब देंहटाएंसदा बच्चों को दूर रखे
वाद से, विवाद से
और हो सके तो पूँजीवाद से।
लेकिन, बच्चे
अक्सर पड़ गये भारी
और मॉं ने अनमने भाव से
पूँजीवाद की आरती उतारी।
आपकी विशेषता है कि आप हर बार हमारे बीच से ही एक ऐसा काव्य-विषय उठा लाते हैं जो सोचने पर मजबूर कर देती है. आपने संतुलित शब्दों में आधुनिक चकाचौंध, संसाधनों का असमान वितरण, बाजारवाद, असंतुलित अर्थव्यवस्था में गृह-संचालन की चुनौती, मातृ मनोविज्ञान आदि का बड़ा ही सहज चित्रण किया है.
जवाब देंहटाएंरैपर के मनोविज्ञान से
कई बार हारता है बाज़ार
क्योंकि माएं
जानती हैं अब भी
अपने बच्चों का मनोविज्ञान
इस पंक्ति में जो पंच होना चाहिए शायद वह कुछ कम रह गया है.... शायद 'मनोविज्ञान' शब्द के खुल कर आ जाने से वो भी दो-दो बार. अन्यथा नहीं लेंगे. आपसे हमेशा कुछ अधिक की उम्मीद रहती है.
Bahut khoob ... repar aur gareebi mein kya saamjasy sthapit kiya hai ...
जवाब देंहटाएंअभी एक शब्द नहीं मेरे पास तरल हो चुके मनोभावों को ठोस बना अभिव्यक्त करने के लिए...
जवाब देंहटाएंसाधुवाद आपका इस सार्थक सृजन के लिए...
... laajawaab !!
जवाब देंहटाएंरैपर का मनोविज्ञान दर्शाती एक सुन्दर कविता .बधाई .
जवाब देंहटाएंएक अनछुए विषय को माँ की संवेदना से जिस तरह आपने जोड़ा है उसके लिए आपकी जितनी तारीफ़ की जाय कम है !
जवाब देंहटाएंरचना बहुत अच्छी लगी !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
बेहतरीन प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति है| बधाई|
जवाब देंहटाएंek anootha prayog...amazing!
जवाब देंहटाएं