१
सिखाया गया था
बचपन में
एक लकीर को
छोटा करने के लिए
खींचनी चाहिए
एक बड़ी लकीर
समय के साथ
बदल गई यह सीख
और छोटी कर रहे हैं
हम लकीरें
काट कर.
२
दादा जी कहते थे
उनकी हाथ की लकीरे
देखनी है तो देखो
हल के मुट्ठे को
हथेलियों में
कहाँ होती हैं लकीरें
आम आदमी के
३
पानी पर
खींचते हुए लकीरें
खो जाता हूं मैं
याद करते हुए
उन लकीरों को
जो खींची थी तुमने
मेरी हथेलियों पर,
अंतिम बार
जब मिले थे हम .
लाजबाब क्षणिकाएं जीवन के अनुभूत सत्यों को उद्घाटित करती हुई ...हर एक क्षणिका गहरा अर्थ बोध करवाने में सक्षम है ...शुक्रिया
जवाब देंहटाएंसमर्थकों का शतक लगने की बधाई ......आशा है यह काफिला और आगे बढ़ता रहेगा ...हार्दिक शुभकामनायें 1000 वें समर्थक होने के लिए
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक और उपयुक्त क्षणिकाएं.. अच्छा लगा..
जवाब देंहटाएंजीवन की सरल रेखाएं, कभी सर्पाकार, कभी तिर्यक और कभी छाप छोड़ती.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सच कथन है इन लाइनों में"सिखाया गया था बचपन से -------और छोटी कर रहे हैं उनको काट कर "
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी सोच |
आशा
पानी पर
जवाब देंहटाएंखींचते हुए लकीरें
खो जाता हूं मैं
याद करते हुए
उन लकीरों को
जो खींचे थे तुमने
मेरी हथेलियों पर,...
hmmmmmm jane kitna kuch yaadon me ghumta hai aur hatheliyaan thartharane lagti hain
सिखाया गया था
जवाब देंहटाएंबचपन में
एक लकीर को
छोटी करने के लिए
खींचनी चाहिए
एक बड़ी लकीर
समय के साथ
बदल गई यह सीख
और छोटी कर रहे हैं
हम लकीरें
काट कर.
सत्य पर आधारित क्षणिका
सिखाया गया था
जवाब देंहटाएंबचपन में
एक लकीर को
छोटी करने के लिए
खींचनी चाहिए
एक बड़ी लकीर
समय के साथ
बदल गई यह सीख
और छोटी कर रहे हैं
हम लकीरें
काट कर.
सही आइना दिखाया है आपने लोगों को.
बहुत सुन्दर बदलते हुये परिवेश को इन क्षणिकाओं के माध्यम से बेहतरीन शब्दों से उतारा है।सभी क्षणिकायें एक से बढ कर एक है मगर दूसरी बहुत अच्छी लगी।बधाई।
जवाब देंहटाएंपर कोई सीधी लकीरें मिली ही नहीं।
जवाब देंहटाएंबदल गई यह सीख
जवाब देंहटाएंऔर छोटी कर रहे हैं
हम लसमय के साथ
कीरें
काट कर।
तीन लकीरें, तीन दृश्य, तीन क्षणिकाएं।
वाह.. बहुत सुंदर।
आज बहुत दिनो बाद आपकी एक बेहद उम्दा और खूबसूरत रचना पढने को मिली……………
जवाब देंहटाएंवो कहते हैं
खींच दी है
मैने एक लकीर और
अब इस पार मै
और उस पार तुम
कुछ लकीरें स्थायी होती हैं
अमिट्……जिन्हे पाटा नही जा सकता
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (17/1/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
पानी पर
जवाब देंहटाएंखींचते हुए लकीरें
खो जाता हूं मैं
याद करते हुए
उन लकीरों को
जो खींचे थे तुमने
मेरी हथेलियों पर,
अंतिम बार
जब मिले थे हम
bahot khub...
सराहनीय प्रस्तुति. पर कहीं बहक न जाना इन लकीरों के चक्कर में
जवाब देंहटाएंपानी पर खिंची लकीरें मन पर स्थाई आकृति बना लेती हैं .सरहानीय प्रस्तुति ..
जवाब देंहटाएंteenon kshanikaayen lakeeron ke teen aayam kholti hain.... aur teenon hee aayam bahut aawashyak hain... behad acchi kshanikayen hain :)
जवाब देंहटाएंaapki har kavita zindagee ke chhote chhote sach jeetee hai .. sab padhate hain par tippanii kabhi kabhi ..
जवाब देंहटाएंbahut badhaayi..
सुंदर ...बेमिसाल क्षणिकाएं.... दूसरी क्षणिका बहुत ही अच्छी लगी.....
जवाब देंहटाएंप्राचीन उपमानो की पुनर्प्रस्तुति है... कोई नयी बात नहीं है इन कविताओं में..
जवाब देंहटाएंहथेलियों में
जवाब देंहटाएंकहाँ होती हैं लकीरें
आम आदमी के
लाज़वाब पंक्तियाँ..हरेक क्षणिका बहुत खूबसूरत..
बहुत सुंदर क्षणिकाएं हुई हैं सर... जैसे हर लकीर अपने अंदर ढेर सारे बिन्दों को समेटे हुए एक नया बिम्ब देती है...वैसी ही हैं यह तीनो क्षणिकाएं
जवाब देंहटाएंकविता इतने कम हरूफ में लिखी है आपने कि हमें भी सिर्फ एक शब्द मे कहना पड़ रहा है, 'धांसू' !
जवाब देंहटाएंagree to Mr. Palash
जवाब देंहटाएंसभी क्षणिकाएँ लाजवाब! पहली जीवन का दस्तूर बताती हुई.. दूसरी ने याद दिला दीं बलराज साहनी की वे पंक्तियाँ (फिल्म वक़्त)कि लकीरें देखनी हों तो मेरे हाथ की नहीं,मेरे पीठ की देखो. और तीसरी क्षणिका ने तो क़तील साहब की याद दिला दीः
जवाब देंहटाएंअपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको,
मैं हूँ तेरा, तू नसीब अपना बना ले मुझको!
... prasanshaneey rachanaayen !!
जवाब देंहटाएंhar lakeer khoobsurat lagi.
जवाब देंहटाएंअतिसुन्दर मनमोहक क्षणिकाएं..जो भावुक भी करती हैं और चिंतन को खुराक भी देती हैं ...
जवाब देंहटाएं'दादा जी कहते थे
जवाब देंहटाएंउनकी हाथ की लकीरे
देखनी है तो देखो
हल के मुट्ठे को
हथेलियों में
कहाँ होती हैं लकीरें
आम आदमी के '
क्या बात है ! लकीरों से हमारे शाश्वत मूल्यों के टूटने की आवाज़ के साथ जीवन की डूबती सिसकियों की पूरी कहानी उभर कर आ रही हैं !
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
वक्त के साथ बीत गई लकिरों की परिभाषाएं,उग आए है नए हाकम जो खरीदते बेचते हैं आम आदमी की लकीरें.टेड़ी या मेडी,किधर जाएगी,तयशुदा है पहले से,कविता के बहाने शहरों के हित अनाज उपजते खेतों में धंसे किसान अच्छे से उभरे हैं आज.रेखाएं प्यार में भी रही ,कभी हाथ में छूटे अहसास के मानिंद या कभी दिल में बहुत गाढ़े से.
जवाब देंहटाएंलकीरों को अलग-अलग तरीको से पूरी सच्चाई से अभिव्यक्त किया है. सुन्दर क्षणिकाएं
जवाब देंहटाएंbouth he aache shabad,,,,,,,,,,, nice blog
जवाब देंहटाएंMusic Bol
Lyrics Mantra
इन बेजोड़ क्षणिकाओं के लिए आपकी जितनी प्रशंशा करूँ कम है...कमाल किया है आपने...बधाई स्वीकारें
जवाब देंहटाएंनीरज