१
गीले भीत के
ढहने के डर से
नींद नहीं आती है
भादो मास
हे देश !
क्यों नहीं है तुम्हें पता ?
२
भादो मास के अन्हरिया में
टूटी हुई चट्टी* पहनकर
गया था वह दिशा मैदान
काट लिया साँप ने
कोसों दूर
न डाक्टर न अस्पताल
मर गया झाड फूंक के दौरान
हे देश !
क्यों नहीं बनी यह खबर ?
३
भादो मास
जो चढ़ी थी नदी
बँटना शुरू हो गया था
अनाज, पन्नी
सुना था रेडियो पर
पंहुचा नहीं मेरे गाँव
हे देश !
क्यों नहीं बना यह मुद्दा ?
४
६५वा भादो है यह
देश का
आज़ादी के बाद
इस बीच
क्यों नहीं आया
कोई अगहन
मेरे लिए
हे देश !
क्या है उत्तर सर्वोच्च संसद के पास ?
*चप्पल
*चप्पल
क्यों नहीं आया
जवाब देंहटाएंकोई अगहन
मेरे लिए
हे देश !
क्या है उत्तर सर्वोच्च संसद के पास ?
बहुत खूब कहा है आपने ... ।
कैसे बनेगे ये मुद्दे ..इनके लिए कीचड में उतरना पड़ेगा ..बाढ़ के पानी में तबाह होते साल भर की मेहनत को देखना पड़ेगा ये मुद्दे हो भी नहीं सकते मुद्दे वो होते है जो काजू चबाते हुए discuss किये जाए
जवाब देंहटाएंkamaal ki soch....kamal ke shabd......wah,koi jabab nahin.
जवाब देंहटाएंगहन प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं६५वा भादो है यह
जवाब देंहटाएंदेश का
आज़ादी के बाद
इस बीच
क्यों नहीं आया
कोई अगहन
मेरे लिए
हे देश !
क्या है उत्तर सर्वोच्च संसद के पास ?
koi uttar nahi
सुन्दर-प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंबधाई ||
सान-सान सद-कर्म को, बसा के बद में प्राण |
जवाब देंहटाएंअपनी रोटी सेक के, करते महा-प्रयाण |
करते महा-प्रयाण, साँस दो-दो वे ढोते |
ढो - ढो लाखों गुनी, पालते नाती - पोते |
मत 'रविकर' मुँह खोल, महा अभियोग चलावें |
कड़ी सजा तू भोग, पाप उनके छिप जावें ||
६५वा भादो है यह
जवाब देंहटाएंदेश का
आज़ादी के बाद
इस बीच
क्यों नहीं आया
कोई अगहन
मेरे लिए...
बहुत सटीक प्रस्तुति...आज के कटु सत्य का बहुत प्रभावी चित्रण..
वाह, 65 वाँ भादों, नैना भी सावन भादौं।
जवाब देंहटाएंअरुण जी आप बहुत अन्दर ........बहुत गहरी चोट करते हो...........ताक़त है आपकी कलम में......सलाम है आपको इस पोस्ट के लिए|
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक प्रश्न , पर क्यूँ नहीं ये उनके कानों तक पहुँचते।
जवाब देंहटाएंसशक्त भावों का समावेश हर पंक्ति में ...बहुत ही अद्भुत सोच
जवाब देंहटाएंadbhut !
जवाब देंहटाएंभादों मास को केंद्र में रख कर बहुत सुंदर तरीक़े से विविध बिन्दुओं पर आप ने अपनी लेखनी चलाई है| बधाई|
जवाब देंहटाएंसचमुच सावन- भादों का एक सच यह भी है...
जवाब देंहटाएंकड़वी सच्चाई दर्शाती क्षणिकाएं...
जैसे ही आसमान पे देखा हिलाले-ईद.
जवाब देंहटाएंदुनिया ख़ुशी से झूम उठी है,मनाले ईद.
ईद मुबारक
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएं--
भाईचारे के मुकद्दस त्यौहार पर सभी देशवासियों को ईद की दिली मुबारकवाद।
--
कल गणेशचतुर्थी होगी, इसलिए गणेशचतुर्थी की भी शुभकामनाएँ!
अरुण जी सही सवाल पूछे हैं आपने.. लेकिन मुश्किल यही है कि देश की किस्मत में सिर्फ भादों ही है और बीच बीच में हमारे ही जैसे देश वासियों के जेठ की मार भी सहनी पड़ती है.. अगहन तो सपने में आता है.. बहुत हुआ तो पूस की रात!!
जवाब देंहटाएंकमाल है अरुण जी!
इस कविता के ज़रिए आपने एक बार फिर ज्वलंत प्रश्नों को समेट संज्ञा शून्य हो चुके सत्ता के गलियारों में दस्तक देने की कोशिश की है, शायद आपकी गुहार अपनी उदासीनताओं के साथ सोते इस वर्ग की नींद में खलल डाले।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर कविता भाई अरुण जी बधाई
जवाब देंहटाएंसांस्कृतिक गिरावट का दौर है....क्या कीजिएगा...
जवाब देंहटाएंजो प्रश्न आपने उठाए हैं,उनका उत्तर अभी देश के पास नहीं है.
जवाब देंहटाएंअरुण जी आपकी करुण पुकार की सुनवाई कभी तो होगी ही.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
गहन चिंतन जो देश चलने वालों को अनुत्तरित करता है
जवाब देंहटाएंbahut umda prastuti ,par iska jvab unke pas bhi nahi...jin tak ye aawaz jani chahiye.....
जवाब देंहटाएंगहन मुद्दों की तरफ ध्यान आकर्षित किया है ..काश यह पुकार संसद तक भी पहुंचे ... अच्छी अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसवाल तो सही हैं पर उत्तर यहाँ है किसके पास
जवाब देंहटाएंचारों शशक्त ... भादों की व्यथा शायद उत्तर की सर्वोच्च संस्था तक नहीं पहुँच पायी है ६५ वर्षों तक ...
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