सदियों से
साथ रहा है उनके
यह रोग
जिन्होंने
काटे हैं पहाड़
बनाये हैं महल
ऊँची चारदीवारी
सड़क, पुल और
नई फैक्ट्रियां
पीठों पर
जो ढोते हैं पत्थर
हाथ
जो गढ़ते हैं
शिलाओं की मूर्तियाँ
जो अपनी छाती के जोर से
बढ़ाते हैं समय को आगे
साथ साथ उनके
चुप चाप चलता है
युद्ध में बहे खून का
हिसाब तो फिर भी है
लेकिन इतिहास में दर्ज नहीं
मेहनतकशो की यह पीड़ा
कुछ समझ नही आयी अरुण ज़ी इस बार …………किस संदर्भ मे है आपकी रचना बवासीर बिम्ब के रूप मे है या बीमारी के रूप मे ?
जवाब देंहटाएंवंदना जी कविता में यह स्पष्ट है . यदि स्पष्ट नहीं है को कविता सफल नहीं हुई है. बवासीर एक ऐसी पीड़ा है जिससे केवल और केवल मजदूर ग्रसित होता रहा है. सदियों से. मजदूरों की पीड़ा को एक बीमारी के नाम से कहने की कोशिश भर की है. अपने आस पास देखिये जीवन को.. ये लोग आम तौर पर मिल जायेंगे... ये बीमारी भी बड़ी आम सी है. बड़ा सपाट सा विम्ब है... इस से स्वतः स्पष्ट हो जाना चाहिए था...
हटाएंमार्मिक ... उस श्रमिक की करुना का चित्रण किया है अरुण जी आपने ... सफल चित्रण उस खून कों कोई नहीं समझ पाता ...
जवाब देंहटाएंसटीक अभिव्यक्ति ....!
जवाब देंहटाएंसुंदर !
जवाब देंहटाएंगरीबी अपने आप में बवासीर नहीं है क्या?
behtarin...hamesha kee tarah...babaseer sheershak
जवाब देंहटाएंpadhne ke kavita padhkar main ajkmanjas me tha lekin kavita ke bishay me aapke bichaar jaankar bhranti ka nirmoolan ho gaya..sadar badhayee aaur amantran ke sath
सच कहा आपने..
जवाब देंहटाएंबहुत खूब अरुण ...
जवाब देंहटाएंक्या कह सकते है ...
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - सच्चा प्यार चाहिए या नानवेज जोक..... ड़ाल करें - ब्लॉग बुलेटिन
यह अगर बीमारी है तो यह किसी वर्ग को नहीं छोड़ती। वंदना जी की बात में दम है।
जवाब देंहटाएंहां आपकी नज़र से देखता हूं, तो कविता अच्छी लगी।
bahut sahi likha hai .
जवाब देंहटाएंयह केवल गरीबों की ही बीमारी है यह तो नहीं कहा जा सकता ... पर हाँ गरीब की ज़िंदगी की पीड़ा ज़रूर है
जवाब देंहटाएंamazing & touching
जवाब देंहटाएंकविता गरीबी के दर्द को एहसास कराने का सफल प्रयास है।
जवाब देंहटाएंbehad khoobsurti se likhi hui......
जवाब देंहटाएंdard jhelti rachna....
जवाब देंहटाएंश्रमिक के पसीने का हिसाब न होना और मूल्य न चुकना तो निश्चित ही दुखद है किन्तु यह तो एक बीमारी जो बहुत कब्ज़ के शिकार लोगों में ज्यादा पाई जाती है...मजदूर कम से कम बवासीर का शिकार तो गरिष्ट खाकर बैठे रहने वाले मालदार रईसों की तुलना में नगण्य ही होंगे. मेहनतकश वयक्ति को भला क्या कब्जियत और भला क्या पाचन तंत्र की खराबी- यही दो मूल कारण तो हैं बवासीर या फिर भगंदर (फिशर) के...बाकी तो कोई डॉक्टर कुछ कहे!
जवाब देंहटाएंक्या कविता को मेरे समझने में कुछ कमी रह गई है अरुण भाई.....
जवाब देंहटाएंअगर ऐसा है तो क्षमाप्रार्थी.
gareeb ki peeda ,dard sabka bkhaan ...behad sundar
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और मार्मिक चित्रण | गरीबी सच में एक अभिश्राप है बवासीर जैसी बीमारी की तरह | आभार
जवाब देंहटाएंTamasha-E-Zindagi
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