गुरुवार, 19 सितंबर 2013

बैलो के गर्दन



बैलो के गर्दन से 
मिट गए हैं 
हल के निशान 
देखिये 
कितना सूखा हुआ है 
आसमान !

बैलों  के गर्दन  पर 
कम हो गया है 
अनाज का बोझ
देखिये कैसे बदल गया है 
मिजाज देश का 

बैलो के गर्दन की घंटियाँ 
बजती नहीं सुबह-शाम 
देखिये कैसे बदल गए हैं 
शहर और गाँव 


9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब! बहुत मर्मस्पर्शी और भावपूर्ण रचना...

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  2. बहुत कुछ ख़तम हो रहा है ..
    शुभकामनायें !

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  3. सुन्दर प्रस्तुति-

    आभार आदरणीया-

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  4. घंटियां तो शायद कितने पहले से ही बजनी बंद हो चुकी हैं ... गाँव ओर शहर के फर्क भी मिल गए हैं ... ओर देश का मिजाज तो पल पल बदल रहा है .. कहां जा के रुकने वाला है ...

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  5. समय की करवट है

    जो नहीं बदलेंगे मि‍ट जाऐंगे :-(

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  6. वाकई में आपकी कविताओं में मैंने हमेशा एक ताजगी का अहसास किया है ..बदलते परिदृश्य को कितनी सफलता से चित्रित किया है आपने ..आपको हार्दिक बधाई के साथ

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  7. सही मायने में बदले तो हम हैं..

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