विजय चौक
वैसे तो देश में सैकड़ो होंगे
लेकिन
देश का सबसे प्रतिष्ठित
विजय चौक है
संसद भवन के साथ
राष्ट्रपति भवन के सामने
उत्तरी और दक्षिणी ब्लाक के
ठीक सामने
जहाँ से शुरू होता है
राजपथ
आम आदमी की बात
होती है जहाँ से
विजय चौक के
एक ओर
होती है
मीडिया की बड़ी बड़ी
गाड़ियाँ कतार में
कतार में होते हैं
नवोदित से बड़े बड़े
पत्रकार
लपकने के लिए
छोटी से छोटी
और बड़ी से बड़ी खबर
बीच बीच में
सन्नाटा पसर जाता है
फव्वारों पर उड़ने वाली पंछी भी
दुबक जाते हैं
सायरन के शोर में
आम आदमी वैसे तो
होता नहीं इस सड़क पर
लेकिन एक दो जो होते हैं
भद्दी गालियों से
और लाल लाल पुलिसिया आँखों से
डरा कर दूर कर दिए जाते हैं
विजय चौक से
जब गुज़रते हैं
हमारे मत से चुने
जनप्रतिनिधि
भागते काफिले को
पकडती है
कैमरे की आंखे
जोर जोर से चीखता हुआ पत्रकार
एक्सक्लूसिव खबर देता है
पीछे होता है संसद मौन
यहाँ के फव्वारे
सालो भर चलते हैं
गरीबी रेखा के नीचे वाले
नलकूप की तरह
सूखते नहीं हैं ये
समय था एक
जब इन फव्वारों पर
कबूतर सुस्ताते थे
प्यास बुझाते थे
बिना भय
फडफडाते थे अपने पंख
जबकि इन दिनों
खदेड़ दिए गए हैं
और कौवों ने
बना लिया है अड्डा.
हुबहू खाका खींच दिया बदलाव का ...
जवाब देंहटाएंbilkkul sateek rekhachitr ......badhai
जवाब देंहटाएंजबकि इन दिनों
जवाब देंहटाएंखदेड़ दिए गए हैं
और कौवों ने
बना लिया है अड्डा.
संसद में भी बस काँव-काँव ही होती है .. सटीक प्रस्तुति
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंनेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती पर उनको शत शत नमन!
आम आदमी की बेहतरी के लिए जिन्हें कटिबद्ध होना था वे ही आम आदमी की दुर्दशा का कारण है!
जवाब देंहटाएंकैसी विडम्बना है!
सार्थकता से सच्ची तस्वीर उपस्थित करती कविता के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएंजहां खास लोग आम आदमी की बात करते हैं... जरूरी नहीं सभी बतिआते हैं - कुछेक सो भी जाते हैं.
जवाब देंहटाएंऔर कौवों ने
जवाब देंहटाएंबना लिया है अड्डा.behatar prastuti ! neta ji ko sat - sat naman
अरुण जी,
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद आज आफ़िसियली फ़ुर्सत में हूँ। आपकी कविता ने दिन भर सोचने की खुराक भी दे दी है। समाज से सापेक्षता तो आपकी कविता की विशेषता शुरी से ही रही है, आज ऐसा लग रहा है कि आपके शिल्प में भी सरलीकरण हो गया है (कहीं यह बहुत दिनों बाद आपके ब्लाग पर आने का असर तो नहीं है यह मेरे लिए?)।
"समय था एक
जब इन फव्वारों पर
कबूतर सुस्ताते थे
प्यास बुझाते थे
बिना भय
फडफडाते थे अपने पंख
जबकि इन दिनों
खदेड़ दिए गए हैं
और कौवों ने
बना लिया है अड्डा."
यूँ तो इस कविता में आप राइट फ़्राम द वेरी फ़्रस्ट बाल शानदार खेल रहे हैं लेकिन आखिरी गेंद पर क्या जोरदार विनिंग सिक्सर मारा है। कायल हो गया हूँ इस व्यंग्य का।
धन्यवाद स्वीकार करें !
सार्थक व सटीक अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंयह बदलाव तो गहराता जा रहा है।
जवाब देंहटाएंसच का सच्चा दृश्य.
जवाब देंहटाएंकौवो ने बना लिया है अड्डा ... सच कहा है अब बेचारे कबूतर कहें नज़र नहीं आते बस कांव कांव ही नज़र आती है ... दूर दृष्टि ..
जवाब देंहटाएंऐसे अनेक बदलाव आ रहे हैं देश के वातावरण में जो किसी भी दृष्टि से चिंताजनक हैं ...
जवाब देंहटाएंकविता की शुरूआत अच्छी है। कविता भी बहुत कुछ कहती है। पर
जवाब देंहटाएंयहाँ के फव्वारे....से .....बना लिया है अड्डा... तक की पंक्तियों की जरूरत ही नहीं है। वास्तव में ये पंक्तियां एक नई कविता का आरंभ हैं।
विजय चौक का इतना सुंदर और ऐतिहासिक विवरण सुंदर कविता के माध्यम से बहुत बढ़िया लगा. बधाई.
जवाब देंहटाएंkavita ne achanak mod liya aur ek sachchi haqueekat kah gayee...sundar rachna..
जवाब देंहटाएंदुखदायी परिवर्तन ....!!
जवाब देंहटाएंबीते हुए दिन याद दिला दिए आपने ....दिल्ली आने की ,विजय चौक देखने की इच्छा प्रबल हो गयी ...
करण समस्तीपुरी ने आपकी पोस्ट " बदल गया है विजय चौक का चरित्र " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंअरुण जी,
बहुत दिनों बाद आज आफ़िसियली फ़ुर्सत में हूँ। आपकी कविता ने दिन भर सोचने की खुराक भी दे दी है। समाज से सापेक्षता तो आपकी कविता की विशेषता शुरी से ही रही है, आज ऐसा लग रहा है कि आपके शिल्प में भी सरलीकरण हो गया है (कहीं यह बहुत दिनों बाद आपके ब्लाग पर आने का असर तो नहीं है यह मेरे लिए?)।
"समय था एक
जब इन फव्वारों पर
कबूतर सुस्ताते थे
प्यास बुझाते थे
बिना भय
फडफडाते थे अपने पंख
जबकि इन दिनों
खदेड़ दिए गए हैं
और कौवों ने
बना लिया है अड्डा."
यूँ तो इस कविता में आप राइट फ़्राम द वेरी फ़्रस्ट बाल शानदार खेल रहे हैं लेकिन आखिरी गेंद पर क्या जोरदार विनिंग सिक्सर मारा है। कायल हो गया हूँ इस व्यंग्य का।
धन्यवाद स्वीकार करें !
कबूतरों के स्थान पर आसीन होते कौवे.. बस इन दो प्रतीकों में सारी बात समेट दी है आपने.. कुछ भी कहना शेष नहीं!! शानदार!!
जवाब देंहटाएंइशारों इशारों में गहरी बात!
जवाब देंहटाएंकबूतर की जगह कौवों ने अड्डा जमा लिया है...!
जवाब देंहटाएंसच्चाई उतर आई है पंक्तियों में।
बदलाव का सटीक व सार्थक विश्लेषण किया है आपने इस प्रभावी रचना में जो दृश्य सा गुजरता है ..आपका आभार..
जवाब देंहटाएंशानदार और लाजवाब है पोस्ट |
जवाब देंहटाएंbilkul sach... din badle ... to fizayen bhi badli.... !! vijay chauk ka rutba bhi badla..
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक और सुन्दर प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंसत्य इतनी शालीनता और सुन्दरता से चित्रित किया सटीक
जवाब देंहटाएंक्या कहूँ.....
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक...
एक अपार पीड़ादायक सत्य...
यहाँ के फव्वारे
जवाब देंहटाएंसालो भर चलते हैं
गरीबी रेखा के नीचे वाले
नलकूप की तरह
सूखते नहीं हैं ये....
...
आपकी शैली में एक करारी चोट इस बार विजय चौक फ़तेह !