सोमवार, 28 अक्टूबर 2013

वह कामरेड न हो सका




उसे 
बोझ ढोने से 
फुर्सत नहीं मिली 
जो बनाता 
मुट्ठियाँ
लगाता नारे 
उठता झंडा 
वह कामरेड न हो सका 

उसके घर का चूल्हा
 दो वक्त 
जला नहीं कभी 
नियमित 
जो जा सके वह 
किसी रैली में 
सुनने किसी का भाषण 
ढोने पार्टी का झंडा 
वह कामरेड न हो सका 

वह कभी 
स्कूल न गया 
फिर कैसे पढ़ पाता वह 
दास कैपिटल 
वह सुनता रहा 
मानस की चौपाइयां 
कबीर की सखियाँ 
वह कामरेड न हो सका 

उसे 
बचपन से ही 
लगता था डर 
लाल रंग से 
प्राण निकल जाते थे उसके 
छीलने पर घुटने 
उसे प्रिय था 
खेतो की हरियाली 
वह कामरेड  हो न सका 

9 टिप्‍पणियां:

  1. उसके घर का चूल्हा
    दो वक्त
    जला नहीं कभी
    नियमित
    जो जा सके वह
    किसी रैली में
    सुनने किसी का भाषण
    ढोने पार्टी का झंडा
    वह कामरेड न हो सका ,,,,

    लाजबाब ,बहुत सुंदर प्रस्तुति ,,,

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  2. मजदूर की बेचारगी उसे कुछ नहीं होने देती ...
    बहुत ही गहरी संवेदना लिए ... सच को दांतों से उठाए ... उम्दा रचना ...

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  3. सच बताऊँ तो ये कविता पढ़कर लगता है जैसे कोई चुपचाप जी रहा सच अचानक सामने आकर बैठ गया हो। मैं उस आदमी की थकान, उसकी मजबूरियाँ और उसकी छोटी-छोटी पसंदों में इतना साफ इंसान देखता हूँ कि दिल भारी हो जाता है। कोई नारे नहीं लगाता, क्योंकि उसके हाथ रोज़ की मेहनत में ही टूट जाते हैं। कोई दास कैपिटल नहीं पढ़ पाता, क्योंकि किस्मत ने किताब से पहले फावड़ा पकड़ा दिया।

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